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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २६३ धीश्वर राजा भोज द्वारा पूजित थे और न्याय रूप कमल समूह को विकसित करने वाले दिनमणि, श्री शब्दरूप अब्ज को प्रफुल्लित करने वाले रोदोमणि (भास्कर) सदृश थे और पण्डित रूपी कमलों को विकसित करने वाले सूर्य तथा रुद्रवादि दिग्गज विद्वानों को वश करने के लिये अंकुश के समान थे तथा चतुर्मुख देव के शिष्य से । दोनों हो शिलालेखों में उल्लिखित प्रभाचन्द्र एक ही विद्वान जान पड़ते हैं। हां, द्वितीय लेख (५५) में चतुर्मुखदेव का नाम नया जरूर है, पर यह संभव प्रतीत होता है कि प्रभाचन्द्र के दक्षिण देश से धारा में श्राने के पश्चात् देशीयगण के विद्वान चतुर्मुखदेव भी उनके गुरु रहे हों तो कोई ग्राश्वयं नहीं क्योंकि गुरु भी तो कई प्रकार के होते हैं - दीक्षा गुरु विद्या गुरु श्रादि। एक-एक विद्वान के कई-कई गुरु और कई-कई शिष्य होते थे। अतएव aga भी प्रभाचन्द्र के किसी विषय में गुरु रहे हों, और इसलिये वे उन्हें समादर की दृष्टि से देखते हो, नो कोई आपत्ति की बात नहीं, अपने से बड़ों को आज भी पूज्य और आदरणीय माना जाता है । अब रही समय की बात, सो ऊपर यह बतलाया जा चुका है कि प्रभाचन्द्र ने प्रमेय कमलमाण्ड को राजा भोज के राज्य काल में रचा है। जिसका राज्य काल संवत २०७० से ११५० तक का बतलाया जाता है । उसके राज्य काल के दो दान पत्र संवत् १०७६ और १०७९ के मिले हैं । आचार्य प्रभाचन्द्र ने देवनंदी को तत्वार्थ वृति के विषम-पदों का एक विवरणात्मक टिप्पण लिखा है । उसके प्रारम्भ में श्रमितगति के संस्कृत पंत्रसंग्रह का निम्न पद्य उद्धत किया है वर्ग: शक्ति समूहो णोरणून वर्गणोदिता । वर्गणानां समूहस्तु स्पर्धक स्पर्धकावहैः ॥ पंच संग्रह मसूतिकापुर में, जो वर्तमान में 'मसीद विलौदा' ग्राम के नाम से समाप्त किया है । श्रमितगति धाराधिप मुंज की सभा रत्न भी थे। इससे दिसंवत् १०७३ के बाद बनाया है। कितने दिन बाद बनाया है । यह अमितगति ने अपना यह प्रसिद्ध हैं, वि० सं १०७३ में बनाकर साफ है कि प्रभाग ने बात यभी विचारणीय है । न्याय विनिश्चय विवरण के कर्ता माचार्य वादिराज ने अपना पार्श्वनाथ चरित शक सं० ६४७ (वि० सं० १०८२) में बनाकर समाप्त किया है। यदि राजा भोज के प्रारम्भिक राज्यकाल में प्रभाचन्द्र ने प्रमेय कमलमार्तण्ड बनाया होता, तो वादिराज उसका उल्लेख अवश्य ही करते। पर नहीं किया, इससे यह ज्ञात होता है कि उस समय लक प्रमेय कमलमार्तण्ड की रचना नहीं हुई थी। हां, सुदर्शन चरित के कर्ता मुनि नयनन्दी ने जो माणिवय नन्दी के प्रथम विद्याशिष्य थे और प्रभाचन्द्र के समकालीन गुरुभाई भी थे, अपना 'सुदर्शनचरित' वि० सं० ११०० में बनाकर समाप्त किया था। उसके बाद 'सकल विधि विधान' नाम का काव्यग्रन्थ बनाया, जिसमें पूर्ववर्ती और समकालीन अनेक विद्वानों का उल्लेख करते हुए प्रभाचन्द्र का नामोल्लेख किया है परन्तु उसमें उनकी रचनाओं का कोई उल्लेख नहीं है। इससे स्पष्ट है कि प्रमेय कमल मार्तण्ड की रचना सं० ११०० के बाद किसी समय हुई है और न्याय कुमुदचन्द्र [सं० १९९२ के बाद की रचना है, क्योंकि जयसिंह राजा भोज (सं० १११०) के बाद किसी समय उत्तराधिकारी हुआ है। न्याय कुमुदचन्द्र जयसिंह के राज्य में रचा गया है। इससे प्रभाचन्द्र का समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी का उत्तराध और १२ वीं शताब्दी का पूर्वार्ध होना चाहिये । १ श्री धाराधिप-भोजराजमुकुट प्रोतास्म- रविमच्छटा छाया कुकुम-पंक लिप्त चरणाम्मो जात लक्ष्मीधन: न्यायाब्जाकरमण्डने दिनमणिपादाब्ज-रोदोमणिः स्यात्पण्डित- पुण्डरीक तरणिः श्रीमान् प्रभाचन्द्रमा || १७|| श्रीचतुर्मुख देवानां शिष्योऽश्रूष्यः प्रवादिभिः । पण्डित श्रीप्रभाचन्द्रो रुद्रादि गंजांकुशः ||१८|| २ यधिकेदानां सहस्र शतविद्वषः । ममूर्तिका पुरं जात मिदं शास्त्रं मनोरमम् । पंचसंह - ६ - जैन शिलालेख संग्रह भा० १५० ११६ ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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