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________________ जैनधर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ वे मुनिराज सभा के मध्य में विराजमान थे जो बिना वचन बोले अपने शरीर से ही मानो मूतिधारी मोक्ष मार्ग का निरूपण कर रहे थे। युक्ति और पागम में कुशल थे, परहित का निरूपण करना ही जिनका एक कार्य था, तथा उत्तमोत्तम मार्य पुरुष जिनकी सेवा करते थे, ऐसे दिगम्बराचार्य गद्धपिच्छाचार्य थे। मैसूर प्रान्त के मगरताल्लुक के ४६३ शिलालेख में लिखा है तस्वार्थसूत्रकर्तारमुमास्वाति मुनीश्वरम् । श्रुतमे शामितीय जनतो गुणमविरम्।' मैं तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता, गुणों के मन्दिर एवं श्रुतकेवली के तुल्यं श्री उमास्वाति मुनिराज को नमस्कार करता हूँ। तत्त्वार्थसूत्र की मूल प्रतियों के अन्त में प्राप्त होने वाले निम्न पद्य में तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता, गद्धपिच्छोपलक्षित उमास्वामि या उमास्वाति मनिराज की बन्दना की गई है। 'तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृज पिच्छोपलक्षितम् । वन्दे गणीन्द्र संजात मुमास्वामि (ति) मुनीश्वरम् ।। इस तरह उमास्वाति प्राचार्य, उमास्वामी प्रौर गद्धपिच्छाचार्य नाम से भी लोक में प्रसिद्ध रहे हैं। महा कवि पम्प (४१) ई० ने अपने प्रादि पुराण में उमास्वाति को 'पार्यनुत गद्रपिच्छाचार्य' लिखा है। इसी तरह चामुण्डराय (वि० सं०१०३५) ने अपने त्रिषष्ठिलक्षण पुराण में तत्वार्थसुत्रकर्ता को गडपिच्छाचार्य लिखा है। आचार्य वादिराज (शक सं०६४७–वि० सं० १०६२) ने अपने पार्श्वनाथचरित में प्राचार्य गुपिच्छ का निम्न शब्दों में उल्लेख किया है : पतुच्छ गुणसंपात गडपिच्छ नतोऽस्मि तम् । पक्षी कुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोस्पतिष्णवः ।। मैं उन गद्धपिच्छ को नमस्कार करता है, जो महान गुणों के पाकर हैं, जो निर्वाण को उड़कर पहंचने की इच्छा रखने वाले भव्यों के लिए पंखों का काम देते हैं। अन्य अनेक उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी तस्वार्थसूत्र के कर्ता का गद्धपिच्छाचार्य रूप से उल्लेख किया है। श्रवणबेलगोल के १०५वें शिलालेख में लिखा है कि--प्राचार्य उमास्वाति ख्याति प्राप्त विद्वान थे। यतियों के अधिपति उमास्वाति ने तत्स्वार्थ सूत्र को प्रकट किया है, जो मोक्षमार्ग में उद्यत हुए प्रजाजनों के लिए उत्कृष्ट पाथेय का काम देता है। जिनका दूसरा नाम गृपिच्छ है। उनके एक शिष्य बलाकपिच्छ थे, जिनके सूक्ति-रत्न मुक्त्यंगना के मोहन करने के लिए माभूषणों का काम देते हैं। इन सब उल्लेखों से स्पष्ट है कि उनका गृद्धपिच्छार्य नाम बहुत प्रसिद्ध था। वे जिनागम के पारगामी विद्वान थे। इसी से तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्द प्रादि मुनियों ने बड़े ही श्रद्धापूर्ण शब्दों में इनका उल्लेख किया है। १. बसुमतिगे नेगले तत्वार्थसूत्रमवेटदगुदापिच्छाचार्या । जसदि-दिगम्तमं मुद्रिसि जिनशासनवमतिमेयं प्रकटसिदर ३ २. विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान बालचन्द मुनि ने तत्त्वार्थसूत्र की कनड़ी टीका में जमास्वाति नाम के साथ गहपिच्छाचार्य का भी नाम दिया है। ३. श्रीमानुमास्वातिरय यतीशस्तत्त्वार्थ सूत्र प्रकटीचकार । यन्मुक्तिमार्गाचरणोधताना पाथेयमर्थ्य भवति प्रजानाम् ॥१५ तस्पैद शिष्योऽजनि गद्धपिच्छ द्वितीय संजस्य बनाकपिच्छः । यसूक्तिररनानि भवन्ति लोके मुकत्यंगनामोहनमण्डनानि ॥१६
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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