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________________ उमास्वाति (पिच्छाचार्य समान जीवों को एकेन्द्रिय, घोंघे के समान जीवों को दो इन्द्रिय, चोंटी के समान जीवों को तीन इन्द्रिय, कंकड़े के समान जीवों को चौइन्द्रिय और बड़े प्राणियों के समान जीवों को पंचेन्द्रिय बताया है तथा मनुष्य के समान अन्य जीवों का यह विभाग अन्य दर्शनों में नहीं पाया जाता । अतः यह तमिल व्याकरण ग्रन्थ एक प्रामाणिक जैन विद्वान की कृति है। उमास्वाति (गृद्धपिच्छाचार्य) मूलसंघ की पट्टावली में कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उमास्वामि (ति) चालीस बर्ष ८ दिन तक नन्दिसंघ के पट्ट पर रहे। श्रवणबेलगोल के ६५वे शिलालेख में लिखा है तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पचनन्दि प्रथमाभिधानः । श्री कुन्दकुन्दादिमुनीश्वरात्यः सत्संयमादुद्गतचारणखिः ।।५ अभवमास्वाति मुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगरपिछः । तदन्वये तत्सदशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी ।।६ अर्थात् जिनचन्द्रस्वामी के जगत् प्रसिद्ध अन्वय में 'पद्मनन्दी' प्रथम इस नाम को धारण करने वाले श्रो कुन्दकुन्द नाम के मुनिराज हुए। जिन्हें सत्संयम के प्रभाव से चारणऋद्धि प्राप्त हुई थी। उन्हीं कुन्दकुन्द के मन्वय में उमास्वाति मुनिराज हुए, जो गृपिच्छाचार्य नाम से प्रसिद्ध थे उस समय गृपिच्छाचार्य के समान समस्त पदार्थों को जानने वाला कोई दूसरा विद्वान नहीं था। श्रवणबेलगोल के २५८ शिलालेख में भी यही बात कही गई है। उनके वंशरूपी प्रसिद्ध खान से अनेक मुनिरूपरत्नों की माला प्रकट हुई। उसी मुनिरत्नमाला के बीच में मणि के समान कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्ध मोजस्वी प्राचार्य हए। उन्हीं के पवित्र वश में समस्त पदार्थों के ज्ञाता उमास्वामि मुनि हुए, जिन्होंने जिनागम को सूत्ररूप में ग्रथित किया। यह प्राणियों की रक्षा में अत्यन्त सावधान थे। अतएव उन्होंने मयुरपिच्छ के गिर जाने पर गुद्धपिच्छों को धारण किया था। उसी समय से विद्वान लोग उन्हें गद्धपिच्छाचार्य कहने लगे। और गद्धपिच्छाचार्य उनका उपनाम रूढ़ हो गया। वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका में तत्वार्थसूत्र के कर्ता को गद्धपिच्छाचार्य लिखा है। प्राचार्य विद्यानन्द ने भी अपने श्लोक वार्तिक में उनका उल्लेख किया है। प्राचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में जो वर्णन किया है वह अत्यन्त मार्मिक है : "मनिपरिषण्मध्ये सम्निषष्णं मर्तमिव मोक्षमार्गमवाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं युक्त्यागम कुशलं परहित प्रतिपावनककार्यमार्य निषेव्यं निग्रन्थाचार्यवयंम् ।" १. तदीयवंशा करतः प्रसिद्धादभूददोषा यति रत्नमाला । बभौ वदन्तमं रिणवन्मुनीन्द्रः स कुन्दकुन्दोदितचण्डदण्टः ।।१० अभूदुमास्वाति मुनिः पवित्र वैशे तदीये सकलाधंवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन ॥११ स प्राणिसंरक्षणेऽवधानो बभार योगी किल गडपिछद्रान् । तदा प्रभुत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छम् ॥१२ २. तह गद्धपिच्छाइरियप्पयासिद तच्चत्वमुत्त वि-"वर्तना परिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य ।" (धवला. पु. ४ १० ३१६) ३. "एतेन गद्धपिच्छाचार्य पर्यन्त मुनिमूत्रए व्यभिचारिता निरस्ता प्रकृत सूत्रे"। तत्वार्थ श्लोक वा.पु.६
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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