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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ प्रो० हार्नले द्वारा सम्पादित नन्दिसंघ की पट्टावलियों के आधार से प्रो० चक्रवर्ती ने पंचास्तिकाय की प्रस्तावना में कुन्दकुन्द को पहली शताब्दी का विद्वान माना है । कुन्दकुन्दाचार्य के समय के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने विचार किया है। उन सबके विचारों पर प्रवचनसार की विस्तृत प्रस्तावना में विचार किया गया है। अन्त में डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय ने जो निष्कर्ष निकाला है, उसे नीचे दिया जाता है :-- ८६ वे लिखते हैं- 'कुन्दकुन्द के समय के सम्बन्ध में की गई इस लम्बी चर्चा के प्रकाश में जिसमें हमने उपलब्ध परम्पराओं की पूरी तरह से छानबीन करने तथा बिभिन्न दृष्टिकोणों से समस्या का मूल्य ग्रांकने के पश्चात् केवल संभावनाओं को समझने का प्रयत्न किया है हमने देखा कि परम्परा उनका समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का उत्तरार्धं श्रर ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी का पूर्वाधं बतलाती है । कुन्दकुन्द से पूर्व पट् खण्डागम की समाप्ति की सम्भावना उन्हें ईसा की दूसरी शताब्दी के मध्य के पश्चात् रखती है। मर्करा के ताम्रपत्र में उनको अन्तिम कालाafa तीसरी शताब्दी का मध्य होना चाहिए । चर्चित मर्यादायों के प्रकाश में ये सम्भावनाएं कि कुन्दकुन्द पल्लव वंशी राजा शिवस्कन्द के समकालीन थे और यदि कुछ और निश्चित प्राधारों पर यह प्रमाणित हो जाय कि वही एलाचार्य थे तो उन्होंने कुरल को रखा मा सुचित करती है कि प्रमाणों के प्रकाश में कुन्द के समय की मर्यादा ईसा की प्रथम दो शताब्दियों होनी चाहिए। उपलब्ध सामग्री के इस विस्तृत पर्यवेक्षण के पश्चात् मैं विश्वास करता हूँ कि कुन्दकुन्द का समय ईस्वी सन् का प्रारम्भ है ।। (प्रवचन० प्र० पृ० २२) इससे स्पष्ट है कि आचार्य कुन्दकुन्द ईसा की प्रथम शताब्दी के आरम्भ के विद्वान हैं। गुणवीर पंडिल 'कुन्द यह कलन्देके वाचानन्द मुनि के शिष्य थे। इन्होंने मलयपुर के नेमिनाथ मन्दिर में बैठकर 'नेमिनाथम्' नामक विशाल तमिल व्याकरण ग्रन्थ की रचना की थी । ग्रन्थ के प्रारम्भ के पद्यों में बतलाया है कि जल-प्रवाह के द्वारा मलयपुर जैन मन्दिर के विनाश होने के पूर्व यह ग्रन्थ रचा गया था। यह ग्रन्थ प्रसिद्ध वेणवा छंद में है। मदुरा के तमिल संगम के अधिकारियों ने इसे थेन तमिल नाम के पत्र में पुरातन टीका के साथ छपाया था। गुणवीर पण्डित का समय ईसा की प्रथम शताब्दी है । इसी से इनकी यह रचना ईस्वी सन् के प्रारम्भ काल की कही जाती है। तोलकप्पिय यह तमिल भाषा के व्याकरण का वेत्ता और रचयिता था । यह प्रसिद्ध वैयाकरण था । इसके रचे व्याकरण का नाम तोल कप्पिय है। यह जैनधर्म का अनुयायी था । हुए इन्द के संस्कृत व्याकरण में" तोलकप्पिय का निर्देश है । इन्द्र का समय ३५० ई० पूर्व है। अतः प्राचीन व्याकरण तोलकल्पिय के समय की उत्तरावधि ३५० ई० पूर्व निश्चित होती है। मदुरा तमिल की पत्रिका की 'सेनतमिल ( जि० १८, १९१६-२० पृ० ३३६ ) में श्री एस क्यापुरिपिल्ले का एक लेख प्रकाशित हुआ था, उसमें उन्होंने लिखा था कि- 'तोलकप्पिय जैनधर्मानुयायी था और इस सम्बन्ध में उनकी मुख्य दलील (युक्ति ) यह थी कि तोलकपिय के समकालीन पनयारनार ने तोलकप्पिय को महान् और प्रख्यात् 'पडिमइ' लिखा है । पडिमइ प्राकृत भाषा के 'पडिमा ' शब्द से बनाया गया है । पडिमा (प्रतिमा) एक जैन शब्द है, जो जंनाचार के नियमों का सूचक है। श्री पिल्ले ने तोल कप्पियम् के सूत्रों का उद्धरण देकर लिखा है कि मरवियल विभाग में घास और वृक्ष के 1 १. मेकडोनल - हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर पू० ११ २. स्टेडीज सा० इ० जैनिज्म पृ० ३६ 1
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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