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________________ कुन्दकुन्दाचार्य ये दोनों गाथाएं परस्पर सम्बद्ध हैं। पहली गाथा में कुन्दकुन्द ने अपने को जिस भद्रबाहु का शिष्य कहा है, दूसरी गाथा में उन्हीं का जयकार किया है और वे भद्रबाहु धुत केवली ही हैं। इसका समर्थन समय प्राभूत की प्रथम गाथा' से भी होता है। उन्होंने उस गाथा के उत्तरार्ध में कहा है कि -श्रत केवली के द्वारा प्रतिपादित समय प्राभूत को कहूंगा । यह श्रुतकेवली भद्रबाहु के सिवाय दूसरे नहीं हो सकते । श्रवणबेलगोल के अनेक शिलालेखों में यह बात अंकित है कि-अपने शिथ्य चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ भद्रबाहु वहाँ पधारे थे, और वहीं उनका स्वर्गवास हमा था । इस घटना को अनेक ऐतिहासिक विद्वान तथ्यरूप में मानते हैं। अतः कुन्दकुन्द के द्वारा उनका अपने गुरु रूप में स्मरण किया जाना उक्त घटना की सत्यता को प्रमाणित करता है। किन्तु कुन्दकुन्द भद्रबाहु के समकालीन नहीं जान पड़ते, क्योंकि अंगज्ञानियों की परम्परा में उनका नाम नहीं है। किन्तु वे उनकी परम्परा में हए अवश्य हैं । पर इतना स्पष्ट है कि भद्रबाहु श्रुतकेवली दक्षिण भारत में गए थे, और वहां उनके शिष्य-अशिष्यों द्वारा जन धर्म का प्रसार हुआ था। अतः कुन्दकुन्द ने उन्हें गमक गुरु के रूप में स्मरण किया है। वे उनके साक्षात शिष्य नहीं थे। परम्परा शिष्य अवश्य थे। उनका समय छह सौ तिरासी वर्ष की कालगणना के भीतर हो पाता है। में कोंगणि वनाकिन्तु इसम व मूलसंघ मोर कुन्यकुन्दान्वय भगवान महावीर के समय में जैन साधु सम्प्रदाय 'निर्ग्रन्थ' सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध था। इसो कारण बौद्ध त्रिपिटकों में महावीर को 'निर्गठ नाटपुन लिदा मिलता है। प्रशोक के शिलालेखों में भी 'निर्गठ' शब्द से उस का निर्देश किया गया है। __ कुन्दकुन्दाचार्य मूलसंघ के प्रादि प्रवर्तक माने जाते हैं । कुन्दकुन्दान्वय का सम्बन्ध भी इन्हों से कहा गया है। वस्तुतः कौण्डकुण्डपुर से निकले मुनिबंश को कुन्दकुन्दान्वय कहा गया है । कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख शक सं. ३८ के मर्करा के ताम्रपत्र में पाया जाता है। मर्करा का ताम्र पत्र शिलालेख नं०६४ से बिल्कूल मिलता है। शिलालेख नं०६४ वे में कोंगणि वर्मा ने जिस मूलसंघ के प्रमुख चन्द्रनन्दि प्राचार्य को भूमिदान दिया है उसी को दान देने का उल्लेख मर्करा के दान पत्र में भी है। किन्तु इसमें चन्द्रनन्दि की गुरु परम्परा भी दी है और उन्हें देशोगण कुन्दकुन्दान्वय का बतलाया है। लेख नं०६४ का अनुमानित समय ईसा की ५वीं शताब्दी का प्रथम चरण है पौर मर्करा के ताम्रपत्र में प्रकित समय के अनुसार उसका समय ई. सन् ४६६ होता है। कोणि वर्मा के पत्र विनीत का समय ४८०ई० से ५२०ई० के मध्य बैठता है। अत: ताम्रपत्र के अंकित समय में कोंगणि वर्मावर्त. मान था, जिसने चन्द्रनन्दि को दान दिया। चन्द्रनन्दि की गुरु परम्परा में गुणचन्द्र, अभयनन्दि, शीलभद्र, जयनाटि गणमन्दि, चन्द्रनन्दि प्रादि का नामोल्लेख है। इसमें नन्द्यन्त नाम अधिक पाये जाते हैं। मूलसंघ की परम्परा भी प्राचीन है। मूलाचार का नाम निर्देश प्राचार्य यतिवृषभ की तिलोयपणत्ति में है। तिलोयपण्णत्ति ईसा की ५वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में निष्पन्न हो चुकी थी। अतः मूलाचार चतुर्थ शताब्दी से पूर्व रचा गया होगा। मूलाचार मूलसंघ से सम्बद्ध है। प्राचार्य कुन्दकुन्द का कर्नाटक प्रान्त के साघुपों पर बहत बड़ा प्रभाव था। सा की ५ वीर कुन्दकुन्द का समय नन्दिसंघ की पट्टावली में लिखा है कि कुन्दकुन्द वि० सं० ४६ में प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। ४४ वर्ष की अवस्था में उन्हें प्राचार्य पद मिला। ५१ वर्ष १० महीने तक वे उस पद पर प्रतिष्ठित रहे । उनकी कुल मायु ६५ वर्ष १० महीने और १५ दिन की थी। १. बंदिस सबसिद्ध घुवमवलमणोक्यं गई पत्ते । बोक्छामि समयपाहुड मिणमो सुयकेवली भरिणयं ॥१ २. शिलालेख सं. भा. १ लेख नं. १,१७, १८, ४०, ५४, १०८
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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