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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ की सब भक्तियाँ पूज्यपाद की बनाई हुई हैं और प्राकृत की सब भक्तियाँ कुन्दकुन्दाचार्य कृत हैं। दोनों भक्तियों पर प्रभाचन्द्राचार्य की टीकाएं हैं। कुन्दकुन्दाचार्य की आठ भक्तियाँ हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं । १ सिद्धभक्ति २ श्रुत भक्ति, ३ चारित्रभक्ति, ४ योगि (अनगार) भक्ति, ५ आचार्य भक्ति, ६ निर्वाण भक्ति, ७ पंचगुरु (परमेष्ठि) भक्ति, ८ थोस्मामि बुदि (तीर्थंकर भक्ति ) । सिद्ध भक्ति- इसमें १२ गाथाओं द्वारा सिद्धों के गुणों, भेटों, सुख, स्थान, आकृति, सिद्धि के मार्ग तथा क्रम का उल्लेख करते हुए प्रति भक्तिभाव से उनकी वन्दना को गई है। श्रुतभक्ति एकादश गाथात्मक इस भक्ति में जैन श्रुत के आचारांगादि द्वादश अंगों का भेद-प्रभेद - सहित उल्लेख करके उन्हें नमस्कार किया गया है। साथ ही, १४ पूर्वी में से प्रत्येक कीवस्तु संख्या और प्रत्येक पाहुडों (प्राभृतों) की संख्या भी दी है। के वस्तु चारित्र भक्ति - दश अनुष्टुप् पद्यों में श्री वर्धमान प्रणीत सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात नाम के पांच चारित्रों, श्रहिंसादि २८ मूलगुणों, दशधर्मो, त्रिगुप्तियों, सकल शीलों, परिषह्जयों और उत्तर गुणों का उल्लेख करके उनकी सिद्धि और सिद्धि फल ( मुक्ति सुख ) को कामना की है। ८५४ योगी (नगर) भक्ति - यह भक्ति पाठ २३ गाथात्मक है। इसमें जैन साधुओं के प्रादर्श जीवन और उनकी चर्या का सुन्दर अकन किया गया है। उन योगियों की अनेक अवस्थाओं, ऋद्धियों, सिद्धियों तथा गुणों का उल्लेख करते हुए उन्हें भक्तिभाव से नमस्कार किया गया है। और उनके विशेषण रूप, गुणों का - दो दोसविप्पमुक् तिदंडविरत. तिसल्लपरिसुद्ध, चउदसगंथपरिसुद्ध, चउदसपुण्यपगम्भ और चउदसमलविवज्जिद - वाक्यों द्वारा उल्लेख किया है, जिससे इस भक्तिपाठ की महत्ता का पता चलता है । आचार्य भक्ति- इसमें दस गाथाम्रों द्वारा आचार्य परमेष्ठी के खास गुणों का उल्लेख करते हुए उन्हें नमस्कार किया गया है। निर्माण भक्ति - २७ गाथात्मक इस भक्ति में निर्वाण को प्राप्त हुए तीर्थकरों तथा दूसरे पूतात्म पुरुषों के नामों का उन स्थानों के नाम सहित स्मरण तथा वन्दना की गई है जहाँ से उन्होंने निर्वाण पद की प्राप्ति को है । इस भक्ति पाठ में कितनी ही ऐतिहासिक और पौराणिक बातों एवं अनुभूतियों की जानकारी मिलती है। (परमेष्ठि) भक्ति - इसमें सृग्विणी छन्द के छह पद्यों में ग्रर्हत्, सिद्ध, श्राचार्य, उपाध्याय और साधु ऐसे पांच पुरुषों का -- परमेष्ठियों का स्तोत्र और उसका फल दिया है और पंच परमेष्ठियों के नाम देकर उन्हें नमस्कार करके उनसे भव भव में सुख की प्रार्थना की गई है। पंच स्तामि बुद्धि (तीर्थकर भक्ति ) - यह 'थोरसामि' पद से प्रारम्भ होने वाली अष्ट गाथात्मक स्तुति है जिसे 'तित्थयरभत्ति' कहते हैं। इसमें वृषभादि वर्द्धमान पर्यन्त चतुविशति तीर्थकरों की उनके नामोल्लेख पूर्वक वन्दना की गई है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी कोई गुरु परम्परा नहीं दी और न अपने ग्रन्थों में उनके नामादि का तथा राजादि का उल्लेख ही किया है। किन्तु बोध पाहुड की ६१ नं० की गाथा में अपने को भद्रबाहु का शिष्य सूचित किया है' । और ६२ नं० की गाथा में भद्रबाहु श्रुत केवली का परिचय देते हुए उन्हें अपना गमक गुरु बतलाया है। मौर लिखा है कि- जिनेन्द्र भगवान महावीर ने अर्थ रूप से जो कथन किया है वह भाषा सूत्रों में शब्द विकार को प्राप्त हुआ है- अनेक प्रकार से गूंथा गया है । भद्रबाहु के मुझ शिष्य ने उसको उसी रूप से जाना है और कथन किया है। दूसरी गाथा में बताया है कि-- बारह श्रंगों और चौदह पूर्वो के विपुल विस्तार के वेत्ता गमक गुरु भगवान श्रुतज्ञानी तकेवली भद्रबाहु जयवन्त हों । १. सद्वियारो हुओ भासासुतं जं जिणे कहिये । सो वह कहियं पायं सीसेराय भदवास ।। ६१ वारस गवियारणं चउदसगुडदंग विउ वित्यरणं । सुवासी भवाह गमयगुरु भगवओ जयभो ॥६२
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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