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________________ उमास्वाति (गुद्धपिच्छाचार्य) रचना गृद्ध पिच्छाचार्य की इस रचना का नाम 'तत्त्वार्थसूत्र' है। प्रस्तुत ग्रन्थ दश अध्यायों में विभाजित है। इसमें जीवादि सप्ततत्त्वों का विवेचन किया गया है। जैन साहित्य में यह संस्कृतभाषा का एक मौलिक प्राद्य सूत्र ग्रन्थ है। इसके पहले संस्कृतभाषा में जन साहित्य की रचना हुई है, इसका कोई आधार नहीं मिलता। यह एक लघुकाय सूत्र ग्रन्थ होते हुए भी उसमें प्रमेयों का बड़ी सुन्दरता से कथन किया गया है । रचना प्रौढ़ और गम्भीर है । इसमें जैनदाङ्मय का रहस्य अन्तनिहित है । इस कारण यह अन्य जैन परम्परा में समानरूप से मान्य है। दार्शनिक जगत में तो यह प्रसिद्ध हया ही है। किन्तु प्राध्यात्मिक जगत में इसका समादर कम नहीं है। हिन्दुना में जिस तरह गीता का, मुसलमानों में कुरान का, और ईसाइयों में चाइबिल का जो महत्त्व है वही महत्व जैन परम्परा में तत्त्वार्थ सूत्र को प्राप्त है। ग्रन्थ के दश अध्यायों में से प्रथम के चार अध्यायों में जीव तत्त्व का, पांचवें अध्याय में अजीव तत्त्व का, छठवें और सातवें अध्याय में प्रास्त्रवतत्त्व का, पाटवें अध्याय में बन्धतत्त्व का, नवमें अध्याय में संबर और निर्जरा का और दश अध्याय में मोक्षतत्त्व का वर्णन किया गया है। तत्त्वार्थ सूत्र का निम्न मंगल पद्य सूत्रकार की कृति है। इसका निर्देश प्राचार्य विद्यानन्द ने किया है। मोक्षमार्गस्य नेतारं भेसारं कर्मभभुताम् । ज्ञातारं विश्यतत्वानां यन्ये तद्गुण लम्धये ।। अन्य कुछ विद्वान इसे सुत्रकार की कृति नहीं मानते। उसमें यह हेतु देते हैं कि पूज्यपाद ने उसकी टीका नहीं की, अतएव वह पद्य सूत्रकार की कृति नहीं है, किन्तु यह कोई नियामक नहीं है कि टीकाकार मगल पद्य की भी टीका करे ही करे। टीकाकार की मर्जी है कि वह मंगल पद्य की टीका करे या न करे, इसके लिए टीकाकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है। फिर इस मंगल पद्य में वही विषय वणित है जो तत्त्वार्थ सूत्र के दश अध्यायों में चचित है। मोक्षमार्ग का नेतृत्व, विश्वतत्व का ज्ञान, और कर्म के विनाश का उल्लेख है। इससे मंगल पद्य सूत्रकार की कृति जान पड़ता है। प्राचार्य विद्यानन्द ने स्पष्ट रूप से 'स्वामिमीमांसितम्, वाक्य द्वारा समन्तभद्र को प्राप्तमीमांसा का उल्लेख किया है। अतएव विद्यानन्द की दृष्टि में उक्त पद्य सूत्रकार का ही है। तत्वार्थ सूत्र की महिमा प्रसिद्ध है : दशाध्याये परिच्छन्ने तत्वार्थ पठते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुंगवः ।। दशाध्याय प्रमाण तत्वार्थसूत्र का पाठ और अनुगमन करने पर मुनि पुंगवों ने एक उपवास का फल बतलाया है । एक उपवास करने पर कर्म की जितनी निर्जरा होती है, उतनी निर्जरा अर्थ समझते हए तत्वार्थ सत्र के पाठ करने से होती है। इसी कारण से दिगम्बर सम्प्रदाय में तो प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को स्त्रियां और पुरुष उसका पाठ करते और सुनते है । दश लक्षण पर्व के दिनों में इसके एक एक अध्याय पर प्रतिदिन प्रवचन होते हैं और जनता इन्हें बड़ी श्रद्धा के साथ श्रवण करती है। इसकी महत्ता इससे भी ज्ञात होती है कि दोनों सम्प्रदायों में इस सूत्र ग्रन्थ पर महत्वपूर्ण टीका-टिप्पणी लिखे गए हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय में इस पर गन्धहस्ति महाभाष्य, तत्वार्थवृत्ति, सर्वार्थ सिद्धि, तत्वार्थराजवातिक, तत्वार्थश्लोकवातिक तत्वार्थवत्ति (श्रुतसागरी) और भास्करनन्दि की सुखबोधवृत्ति प्रादि अनेक टीका ग्रन्थ लिखे गए हैं। दशवीं शताब्दी के प्राचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त तत्वार्थ सूत्र का संस्कृत पद्यानुवाद किया है। श्रवण बेलगोल के शिलालेख से ज्ञात होता है कि शिवकोटि ने भी तत्वार्थसूत्र की कोई टीका लिखी है, जैसा कि शिलालेख के निम्न पद्य से स्पष्ट है। "शिष्यो तदीयो शिक्षकोटिसरिस्तपोलतालम्बन देहयष्टिः। 'संसारवाराकरपोतमेतत्तत्वार्थसूत्रं तदतंचकार ॥"
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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