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________________ ३५४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग ३ खखा। इससे प्रस्तुत नरेन्द्र कोति ईसा की १२वीं शताब्दी के विद्वान हैं । (जैन लेख सं० भा० ३ ०६०) त्रिभुवन मल्ल त्रिभुवन मल्ल तर्काचार्य देवकीति के शिष्य थे। इनके दो शिष्य और भी थे । लक्खनन्दि और माधवचन्द्र व्रतो । देवकोति का स्वर्गवास शक सं० १०८५ सन् ११६३ (वि० सं० १२२०) में सुभानु संवत्सर में प्राषाढ़ शुक्ला हवी बुधवार को हुआ था। प्रतः त्रिभुवन मल्ल का समय ईसा की १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और विक्रम की १३वीं शताब्दी का पूर्वाध है। जैन लेख सं० भा० १ पृ. २२,२३ मुनिकनकामर ___ मुनि कनवामर चन्द्रऋषि गोत्र में उत्पन्न हुए थे। उनका कुल ब्राह्मण था। किन्तु देह भोगों से वैराग्य होने के कारण वे दिगम्बर मुनि हो गये थे। कवि के गुरु बुध मंगलदेव थे । कवि भ्रमण करते हुए प्रासाइ (पाशापुरी) नगरी में पहुंचे थे । वे जिन चरण कमलों के भक्त थे। कवि ने वहां के भव्य जनों के विनय पूर्वक व स्नेह वश करकण्डु चरित की रचना की । जिनके अनुराग वश इस ग्रन्थ की रचना की, उनकी प्रशंसा करते हुए भी कवि ने उनका नामोल्लेख नहीं किया । किन्तु बह कनक वणं और मनोहर शरीर का धारक था, विजय पाल नरेया का स्नेह पात्र, धर्म रूपी वृक्ष का सींचने वाला, दुस्सह वैरियों का विनाशक, तथा बान्धवों, इष्टों और मित्र जनों का उपकारी था। भुपाल राजा का मनमोहक, अनाथों का दुःख भंजक और कर्ण नरेन्द्र का हृदय रंजक था, बड़ा दानी, धैर्यशाली, और जिन चरण कमलों का मधुकर था। उसके तीन पुत्र थे प्राहुल, रहु मोर राहुल । जो कनकामर के चरण कमलों के भ्रमर थे । कवि ने ग्रंथ में सिद्धसेन, गमन्तभद्र, अकलंक देव, जयदेव, स्वयंभू और पुष्पदन्त का उल्लेख किया है । इन में ववि पुगदा ने अपना महापुराण सन् ६६५ ई० में समाप्त किया था। अतः करकण्डु चरित उसके बाद की रचना है 1 कवि द्वारा उल्लिखित राजा गण यदि चन्देलवंशी हैं जिनका डा. हीरालाल जी ने उल्लेख किया है। तो ग्रंश पा रचना सगय विक्रम की ११ वीं शताब्दी हो सकता है। बा. हीरालाल जी ने विजयपाल कीर्तिवर्मा (भवनपाल) और कर्ण इन तीनों राजामों का अस्तित्व समय सन् १०४० और १०५१ के प्रास-पास का बतलाया है। अत: मुनि कनकामर का समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी का मध्यकाल हो सकता है। ग्रंयकर्ता के गुरु बुध मंगल देव हैं, पर उनका भी कहीं से कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। प्रस्तुत प्रथएक खण्ड काव्य है इसम पाश्वनाथ की परम्परा में होने वाले राजा करकण्ह का जीवन परिचय अंकित किया गया है । ग्रंथ दश संधियों में विभक्त है, जिनमें २०१ कडवक दिये हुये हैं। कवि ने ग्रंथ को रोचक बनाने के लिए अनेक भावान्तर कथाएं दी हैं। जो लोक कथाओं को लिये हुए है। उनमें मंत्र शक्ति का प्रभाव, अज्ञान से आपत्ति, नीच संगति का बुरा परिणाम और सत्संगति का अच्छा परिणाम दिखाया गया है। पांचवी कथा एक विद्याधर ने मदनाबलि के विरह से व्याकुल करकंडु के वियोग को संयोग में बदल जाने के लिए सुनाई । सातवीं कथा शुभ शकुन-परिणाम सूचिका है । आठवीं कथा पपावती ने विद्याधरी द्वारा करकंडु के हरण किये जाने पर शोकाकुल रतिवेगा को सुनाई। नोमीकथा भवान्तर में नारी को नारीत्व का परित्याग करने की सूचिका है । ग्रन्थ में देशी शब्दों का प्रचुर व्यवहार है, जो हिन्दी भाषा के अधिक नजदीक है। रस प्रलंकार, श्लेष और प्राकृतिक दृश्यों से अन्य सरस बन पड़ा है । अन्य में तेरापुर की ऐतिहासिक गुफाओं का परिचय भी अंकित है, जो स्थान धाराशिव जिले में तेर पुर के नाम से प्रसिद्ध है | डा० हीरालाल जी ने इस कंकण्डुचरित का सानुवाद राम्पादन किया है जो भारतीय ज्ञान पीठ से प्रकाशित हो चुका है। कवि श्रीधर प्रस्तत कवि हरियानादेश का निवासी था । और अग्रवाल कुल में उत्पन्न हुमा था। इनके पिता का १, शिप परिषय के लिये करका चरित की प्रस्तावना देखें।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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