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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
३५५ नाम चूध 'गोल्ह' था और माता का नाम था वील्हा देवी, जो सति साध्वी और धर्म परायणा थी। कवि ने इसके अतिरिक्त अपनी जीवन घटनामों और गृहस्थ जीवन का कोई परिचय नहीं दिया । कवि की इस समय दो रचनाएं उपलब्ध हैं। पासणाह चरिउ और चड्ढमाण चरिउ । कवि ने ग्रन्थ में चन्द्रप्रभ चरित का उल्लेख किया है।
पासणाह चरिउ
प्रस्तुत ग्रंथ एक खण्ड काव्य है। जिसमें १२ सन्धियां हैं जिनको श्लोक संख्या ढाई हजार से ऊपर है। ग्रन्थ में जैनियों के तेइसव तीर्थकर भगवान पाश्र्वनाथ का जीवन परिचय अंकित किया गया है। कथानक वही है जो अन्य प्राकृत-संस्कृत के ग्रंथों में उपलब्ध होता है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में कवि ने दिल्ली नगर का अलंकृत भाषा में अच्छा परिचय दिया है, उस समय दिल्ली जोयणिपुर (योगिनीपुर) के नाम से विख्यात थी, जन-धन से सम्पन्न, उत्तंगसाल (कोट) गोपुर विशाल परिखा (खाई) रणमंडपो, सुन्दर मंदिरों, समद गजघटाना, गतिशाल तुरंगा, और ध्वजारों से अलंकृत थी।
स्त्रिीरकने को सुनकर नाचते हुए मयूरों और विशाल हट्ट मार्गों का निर्देश किया गया है।
उस समय दिल्ली में तोमर वंशी क्षत्रिय अनंगपाल तृतीय का राज्य था । यह अनंगपाल अपने दो पूर्वज अनंगपालों से भिन्न अर्थात् तृतीय अनंगपाल नाम से ख्यात था। यह बड़ा प्रतापी और बीर था, इसने हम्मोर वोर की सहायता की थी। ये हम्मीर वीर अन्य कोई नहीं, प्रतिहार वंश की द्वितीय शाखा के हम्मोर देव जान पड़ते हैं, जिन्होंने संवत् १२१२ से १२२४ तक ग्वालियर में राज्य किया है। अनंगपाल का इनसे क्या सम्बंध था. यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका। उस समय दिल्ली वैभव सम्पन्न थी, और उसमें विविध जाति और धर्म वाले लोग रहते थे।
अन्य रचना में प्रेरक
पार्श्वनाथ चरित की रचना में प्रेरक साहु नल था, जिसका पारिवारिक परिचय कवि ने निम्न प्रकार दिया है। साहु नट्टल के पिता का नाम 'माल्हण' था । इनका वंश अग्रवाल था, वह सदा धर्म कर्म में स. वान रहने थे। माता का नाम 'मेमडिय' था, जो शील रूपी सत् प्राभूषणों से अलंकृत थी और बांधव जनों को सुख प्रदान करती थी। साह नल के दो ज्येष्ठ भ्राता थे, राघव और सोढल । इनमें राघब बड़ा ही मून्दर एवं रूपवान था। उसे देखकर कामनियों का चित्त द्रवित हो जाता था। और सोढल विद्वानों को प्रानंद दायक, गुरु भक्त पोर अरहत देव की स्तुति करने वाला था, जिसका शरीर विनय रूपी आभूषणों से अलंकृत था, तथा बड़ा बुद्धिवान और धीर. वीर था। नट्टल साहु इन सबमें लघु, पुण्यात्मा, सुन्दर और जनवल्लभ था। कुल रूपी कमलों का पाकर और पाप रूपी पांशु (रज) का नाशक, तीर्थकर का प्रतिष्ठापक, बन्दी जनों को दान देने वाला, पर दोषों के प्रकाशन से विरक्त रत्नत्रय से विभूषित और चतुर्विध संघ को दान देने में सदा तत्पर रहला था। उस समय वह दिल्ली के जैनियों में प्रमुख था । व्यसनादि से रहित श्रावक के प्रतों का अनुष्ठान करता था । साहूनट्टल केबल धमात्मा ही नहीं था, किन्तु उच्चकोटि का कुशल व्यापारी भी था । उस समय उसका व्यापार अंग, बंग, कलिंग, कर्नाटक, नेपाल, भोट पांचाल, चेदि, गौड़, ठक्क (पंजाब) केरल, मरहट्ट, भादानक, मगध, गुर्जर, सोरठ और हरियाना आदि नगरों और देशा में चल रहा था। यह राजनीति का चतुर पंड़ित भी था, कुटम्बी जन तो नगर सेठ थे और आप स्वयं तोमरवशो अनंगपाल तृतीय का प्रामात्य था। साह नट्टल ने कवि श्रीधर से, जो हरियाना देश से यमुना नदी पार कर दिल्ली में आये थे, पार्श्वनाथ चरित बनाने की प्रेरणा की । तब कवि श्रीधर ने इस सरस खण्ड काव्य की रचना वि.
१ सिरि अयरवाल कुल संभवरण, जगणी-वोल्हा-गम्भुभवेण ।
अणवरम-विणाय-परपयारुहेण, कणा बुह गोल्ह-तारुहेण ॥-पाएननाथ च० प्र० २ हि असि-वस्तोडिय रिठ-कबाल, गरगाह प्रसिद्ध अणंगवाल ।।
-पाच प्र.