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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दों के विद्वान आचार्य
हो चुका है।
पाचार बुलि
मुलाचार मूलसंघ के प्राचार विषय का वर्णन करने वाला प्राचीन मौलिक ग्रन्थ है। जिसका उल्लेख ५वीं शताब्दी के प्राचार्य भने यति के ग्राउने अधिकार की ५३२वीं गाया में 'मूलाइरिया' वाक्य के साथ किया है। और नवमी शताब्दी के विद्वान आचार्य वीरसेन ने अपनी धवला टीका में 'तह प्रायारंगे वि वृत्तं' वाक्य के साथ उसकी 'पंचत्थिकाया' नाम की गाथा उद्धत की है जो उक्त प्राचारांग में ४०० नम्बर पर पाई जाती है । १२वीं शताब्दी के प्राचार्य वीरनन्दी ने आधारसार में मूलाचार की गाथाओं का अर्थशः अनुवाद किया है । १३वीं शताब्दी के विद्वान पं० शाशाधर जी ने उक्तं च मूलाचारे' वाक्य के साथ अनगार धर्मामृत की टीका के पृ० ५५४ में 'सम्मत्तणाण संजम' नाम की गाथा उद्धृत की है जो मूलाचार में ५१६ नम्बर पर पाई जाती है । १५वीं शताब्दी भट्टारक सकलकीर्ति ने 'मूलाचार प्रदीप' नाम के ग्रंथ में मूलाचार की गाथाओंों का सार दिया । इससे उसके परम्परा प्रचार का इतिवृत्त पाया जाता है । ग्रन्थ में १२४६ गाथाएं हैं जो १२ अधिकारों में विभक्त है।
इस ग्रन्थ की टीका का नाम आचारवृत्ति है, इसके कर्त्ता श्राचार्य वसुनन्दी हैं । टीकाकार ने टीका की उत्थानिका में बट्टकेराचार्य का नामोल्लेख किया है, परन्तु उनका कोई परिचय नहीं दिया, शिलालेखादि में भी वट्टर का नाम उपलब्ध नहीं होता, और न उनकी गुरु परम्परा ही मिलती है । टीका गाथाओं के सामान्यार्थ की बोधक है । यद्यपि उनकी विशेष व्याख्या नहीं है, किन्तु कहीं-कहीं गाथाम्रों की अच्छी व्याख्या लिखी है । ओर उनके विषय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। टीकाकार ने पडावश्यक अधिकार की १७६वीं गाथा की टीका में प्रमितगति उपासकाचार के 'त्यागी देह ममत्यस्य तनूस्मृतिरुदाहृता' आदि पंच श्लोक उद्धत किये हैं। टीका में वसुनन्दी ने उसकी रचना का समय नहीं किया। डा० ए० एन० उपाध्ये ने इस वृत्ति का समय १२वीं शताब्दी बतलाया है" ।
समय
माचार्य वसुनन्दी ने अपने उपासकाचार में और टीका ग्रन्थों में उनका रचनाकाल नहीं दिया । इस लिये निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि उक्त रचनाएं कब बनीं। विक्रम की १३ वीं शताब्दी के विद्वान पं० प्राशावर जी ने सं० १२६६ में समाप्त हुए सागारधर्मामृत को टीका में वसुनन्दी का पादरणीय शब्दों में उल्लेख किया है:
यस्तु पंचवर सहियाई सप्त वि वसणाई जो विवज्जे । सम्माविद्ध भई सो वंसणसावो भणियों ॥। २०५ ॥
इति वसुनन्दी सैद्धान्त मतेन दर्शन प्रतिमायां प्रतिपन्नस्तस्यैवं । तन्मते नैव व्रत प्रतिमायां विभ्रतो ब्रह्माण व्रतं स्यात् तद्यथा— 'पब्वेसु इत्थिसेवा प्रणंगकोडा सया विवज्जेड़। धूलयह बंभयारी जिर्णोहि भणिदो पवयणम्मि | इस उल्लेख से सुनन्दी १३वीं शताब्दी से पूर्ववर्ती है। चूंकि उन्होंने ११ वी शताब्दी के प्राचार्य श्रमितगति के उपासकाचार ५ पद्य आचार वृत्ति में उद्धत किये हैं । अतः वसुनन्दी का समय ११वीं शताब्दी का उपान्त्य मी १२वीं शताब्दी का पूर्वार्ध हो सकता है ।
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नरेन्द्र कोति विद्य
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मूलसंघ कोण्ड कुन्दान्वय देशियगण पुस्तक गच्छ की गुरु परम्परा में सागरनन्दी सिद्धान्तदेव के प्रशिष्य और मनन्दि मुनि के शिष्य नरेन्द्रकीर्ति त्रैविद्य देव थे, जो न्याय व्याकरण और जैन सिद्धान्त के कमल बन इनके साथी ३६ गुण पालक मुनिचन्द्र भट्टारक थे। कौशिक मुनिकी परम्परा में होने वाला देवराज था, उसका पुत्र उदयादित्य था, उसके तीन पुत्र थे, देवराज, सोमनाथ और श्रीधर । इनमें देवराज कडुचरिते का प्रधान था। उसे देवराज होयसलने सूरनहल्लि ग्राम दान में दिया, वहां उसने एक जिनमन्दिर बनवाया, उसकी भ्रष्ट विधपूजा और माहार दान के निमित्त उक्त ग्राम सन् १९५४ ई० में मुनिचन्द्र को प्रदान किया और उसका नाम पार्र पुर
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