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________________ ३४६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ वीर्य, वरषेण, महामति वीरसेन, जिनसेन, विहंगसेन, गुणभद्र, सोमराज चतुर्मुख, स्वयंभू, पुष्पदन्त श्रीहर्ष और कालिदास नाम के पूर्ववर्ती विद्वानों का उल्लेख किया गया है। कवि स्वयं अपनी रचना में धारणाल, दुबई (१२-३) जंभिदिया उवखंडयं गाथा और मदनावतार छंदों का प्रयोग किया है, किन्तु ग्रंथ में प्रधानता पद्धडिया की है। कवि ने रयणकरंडसावयायार की रचना सं० ११२३ में कर्ण नरेन्द्र के राज्यकाल में श्रीवालपुर में समाप्त की थी। यह कर्ण देव वही कर्ण देव ज्ञात होते हैं जो राजा भीमदेव के लघु पुत्र थे । और जिनका राज्यकाल प्रबन्ध चिन्तामणि के कर्त्ता मेरु तुंरंग के अनुसार सं० ११२० से ११३९ तक उन्नीस वर्ष प्राय महीना और इक्कीस दिन माना जाता है। इन दोनों रचनाओं के प्रतिरिक्त कवि की अन्य रचनाएं अन्वेषणीय हैं, ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है । चन्द्रकीर्ति और उनके (५४) है जो शक सं० १०५० है, जिस दिन मुनि मल्लिषेण ने मल्लिषेण से संभवतः २५ वर्ष चाहिये । चन्द्रकीर्तितबिन्दु के कर्ता) - ग्रन्थ 'श्रुतविन्दु' का उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति में पाया जाता है। यह प्रशस्तिलेख (सन् ११२५ ई० ) और वि० सं० १९८५ को फाल्गुन वदी तीज को उत्कीर्ण हुआ प्राराधना पूर्वक अपने शरीर का परित्याग किया था । चन्द्रकीति का समय पूर्व मान लिया जाय, तो उनका समय वि० सं० ११६० के लगभग होना पथप्रभ नलवारी ने अपनी नियमसार की टीका में चन्द्रकीति के दो पद्यों को उद्धृत किया है। एक पद्य पृ० ६१ में चन्द्रकीर्ति के नामोल्लेख के साथ दिया है सकल करणग्रामालंचा द्विमुक्तमनाकुलं । स्वहितनिरतं शुद्धं निर्वाणकारणकारणम् । शमदममायासं मैत्रीवयादम मंदिरम् । freeafnवं वन्द्यं श्रीचन्द्रकीतिमुनेर्मनः ॥ दूसरा पद्य पृ० १४२ में 'तथा चोक्तं श्रुतबन्दी' (विन्वी) वाक्यों के साथ उद्धृत किया है ? जयतिविजय दोषोऽमर्त्यमत्येंन्द्रमौलि प्रविलसद्रुमालाम्यचितांघ्रिजिनेन्द्रः | विजगदजगतो यस्ये वृशौ य' नुवाते सममिव विषभेष्वन्योन्यवृतिं निषेद्धम् ॥ इससे स्पष्ट है कि चन्द्रकीर्ति का 'श्रुतबिन्दु नामका यह ग्रन्थ महिलषेण और पद्यप्रभ मलाघारी देव के सामने मौजूद था। उसके बाद वह विनष्ट हो गया । ग्रन्थ भण्डारों में उसका प्रन्वेषण होना चाहिए। इस पद्य में बतलाया है कि जिनका मन सम्पूर्ण इन्द्रियों के ग्रामों रहित है, जो प्राकुलता रहित अपने आत्मकल्याण में तत्पर हैं । निर्वाण के कारणभूत शुक्लध्यान की प्राप्ति का कारण है। समता और इन्द्रिय दमनता का मन्दिर है । दया और जितेन्द्रियता का घर है, उपमा रहित ऐसे चन्द्रकीति गुरु का मन मेरे द्वारा वन्द्यनीय है । चन्द्रकीति नाम के दूसरे विद्वान यह माथुर संघ के विद्वान श्रीषेणसूरि के दीक्षित शिष्य थे। जो पण्डितों में प्रधान और वादिरूपी वन के लिये कृशानु (अग्नि) थे । 'चन्द्रकीर्ति तपरूपी लक्ष्मी के निवास, अर्थिजन समूह की प्राशा पूरी करने वाले तथा १. रामार तेवीसावाससया विक्कमस्त महि वणो । जदया गया तइया समातिए सुंदर रहयं ॥ कष्णरिन्द हो रज्जहि सिरि सिरिबालपुरम्म वृहदें । - बालपुर महि सिरियं रव के एक गंदउ कब्वु जयंणिदं २. चन्द्रकीर्ति ने अपने शिष्यों पर अनुकम्पा करके श्रुतविन्दु ग्रन्थ की रचना की थी। देखो, शिलालेख का ३२ वां पद्म) ३. सिरि सूरि पंडिय पहाणु, तहो सीसुवाइ कारण - किसाए । --- षट्कर्मोपदेश प्रशस्ति, जैन ग्रन्थ प्र० सं० ना० २१४
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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