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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ जोवितावधिकं च । उत्तर गुण प्रत्याख्यान सयंतासंयतयोपि अल्पकालिक जीविता वधिकं वा।"
अर्थात् यह प्रत्यास्मान दो प्रकारका है, मूलगुण प्रत्याख्यान और उत्तरगुण प्रत्याख्यान। उनमें से संयमी मुनियों के मूलगुण प्रत्याख्यान जीवन पर्यन्त के लिए होता है। संयतासंयत पंचम गुणस्थानवों श्रावक के अणुयतों को मूल गुण कहते हैं । गृहस्थों के मूलगुणों का प्रत्याख्यान अल्पकालिक और सर्वकालिक दोनों प्रकार का होता है। पक्ष, महीना, छह महीने इत्यादि रूप से भविष्यत्काल की मर्यादा करके जो स्थूल हिंसा, असत्य, चोरी, मैथन सेवन और परिग्रह रूप पंच पापों को मैं नहीं करूंगा, ऐसा संकल्प कर उनका जो त्याग करता है वह जीवितावधिक प्रत्याख्यान है । उत्तर गुण प्रत्याख्यान तो मुनि और गृहस्थ दोनों ही जीवन पर्यन्त तथा अल्पकाल के लिए कर सकते हैं।
गाथा नं. ५ की टीका में सिद्ध प्राभूत' का उल्लेख किया है। ७५३ की गाथा की व्याख्या करते हुए 'नमस्कारपाइड' ग्रन्थ का उल्लेख किया है।'
अपराजित सूरि ने अपनी टीका में देवनन्दी (पूज्य पाद) की सर्वार्थ सिद्धि तथा अकलंकदेव के तत्त्वार्थ पातिक का भी उपयोग किया है । और उनकी अनेक पंक्तियों को उद्धत किया है।
अमितगति प्रथम ममितगति-माथुर संघ के विद्वान देवसेन के शिष्य थे। जिन्हें विध्वस्त कामदेव, विपुलशमभूत, कान्तकीति और श्रुत समुद्र का पारगामी सुभाषित रत्न सन्दोह की प्रशस्ति में बतलाया गया है। पौर इनके शिष्य प्रथम प्रमितगति योगी को प्रशेष शास्त्रों का ज्ञाता, महावतों-समितियों के धारकों में अग्रणी, कोष रहित, मुनिमान्य और बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों का त्यागी बतलाया है, जैसा कि-'त्यक्तनिःशेष संगः । वाक्य से प्रकट है :---
"विशाताशेषशास्त्री व्रत समितिभसामग्रणीरस्तकोपः।।
श्रीमान्माम्यो मुनीनाममितगति यतिस्पक्तनिशेषसंगः ।।" इस तरह अमित गति द्वितीय ने उनका बहुत गुण गान किया है, उन्हें असंध्य महिमालय, विमलसत्ववान रत्नघी, गणमणि पयोनिधि, बतलाया है। साथ ही धर्म परीक्षा में 'भासिताखिल पदार्थ समूह :निर्मलः, तथा साराधना में 'शम-यम-निलयः, प्रदलितमदनः, पदनतसरि जैसे विशेषणों के साथ स्मरण किया है। जो उनके व्यक्तित्व की महत्ता को प्रकट करते हैं। इससे वे ज्ञान और चारित्र की एक प्रसाधारण मूर्ति थे। उनका व्यक्तित्व महान् था और अनेक प्राचार्यों से पूजित-नमस्कृत एवं महामान्य थे। उन्होंने पशेष शास्त्रों का अध्ययन किया था, और उन्होंने जो अनुभव प्राप्त किया था, उसी का सार रूप ग्रन्थ योगसार प्राभूत' है। उनकी यह रचना संक्षिप्त, सरस और गम्भीर अर्थ की प्रतिपादक है। 'चूकि अमित गति द्वितीय का रचना समय सं० १०५० से १०७३ है। अमित गति प्रथम इनसे दो पीढ़ी पहले हैं। अत: उसमें से ५० वर्ष कम कर देने पर उनका समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी का प्रथम चरण जान पड़ता है।
----------- - -- - . . . .- -.-..- - १. सिद्ध प्राभूतगदित स्वरूप सिद्धज्ञानमागमभावसिद्धः ॥ (गाथा ५) २. 'नमस्कार प्राभूत नामास्ति ग्रन्थः यत्र नय प्रमाणादि निक्षेपादि मुखेन नमस्कारो निरूप्यते । (गाया ७५३) ३. देखो अनेकान्न वर्ष २ किरण ८ पृ० ४३७ । ४. "आशीविध्वस्त:-कन्तो विपुलशमभृत: श्रीमतः क्लान्तकीतिः । सूरेय तस्य पार धुतसलिलनिघेवसेनस्य शिष्यः' ।।
--सुभा० स०१५ ५. "भासिताबिलपदार्य समूहो निर्मलोऽमितगतिगणनायः ।
बासरो दिनमण रिव तस्माज्जायतेस्मकमलाकर बोधी ।।३" ६. "धूर्ताजन समयोजनि महनीयोगुणमणि जलस्तदनुमतियः ।
शमयम निलयोऽमित गति सूरिः प्रदलितमदनो पदनतसूरिः ॥"