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नवमीं दशवीं शताब्दी के आचार्य
आपको एकमात्र कृति 'योगसार' है । जो नी अधिकारों में विभक्त है— जीवाधिकार, अजीवाधिकार, आस्त्रवाधिकार, बन्धाधिकार, संवराधिकार, निर्जराधिकार, मोक्षाधिकार, चारित्राधिकार और वलिकाधिकार । इन अधिकारों में योग और योग से सम्बन्ध रखने वाले आवश्यक विषयों का सुन्दर प्रतिपादन किया गया है। ग्रन्थ अध्यातम रस से सराबोर है। उसके पढ़ने पर नई अनुभूतियां सामने आती हैं । ग्रन्थ आत्मा को समझने और उसके समुद्वार में कितना उपयोगी है। इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं, ग्रन्थ का अध्ययन करने से यह स्वयं समझ में आ जाता है । ग्रंथ की भाषा सरल संस्कृत है । पद्य गम्भीर अर्थ को लिए हुए हैं। उक्तियों और उपमाओं तथा उदाहरणादि द्वारा विषय को स्पष्ट और बोधगम्य बना दिया है । ग्रन्थ पर कुन्द कुन्दाचार्य के अध्यात्म-ग्रन्थों का पूर्ण प्रभाव है ।
अन्तिम अधिकार में भोग का स्वरूप दिया है और संसार को आत्मा का महान् रोग बतलाया है, और उससे छूट जाने पर मुक्तात्मा जैसी स्वाभाविक स्थिति हो जाती है । भोग संसार से सच्चा वैराग्य कब बनता है। और निर्माण प्राप्त करने के लिये क्या कुछ कर्तव्य है इसका संक्षिप्त निर्देश है । ग्रन्थ का अध्ययन और मनन जीवन की सफलता का संद्योतक है। ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है ।
विनयसेन
विनयसेन - मूलसंघ सेनान्वय पोगरियगण या होगरिगच्छ के विद्वान थे। जैन शि० सं० भा० ४ के लेख नं० ६१, जो शक सं० ८१५ (सन् ८०३) वि० सं० ९५० के इस प्रथम लेख में इन्हें ग्राम दान देने का उल्लेख है । प्राचार्य अमृतचन्द्र ठक्कुर
सो जयज अमिय दो जिम्मल-वय-तव-समाहि-संजुत्तो । जो सारसय णिउणो विज्जा-गुण-संडियो धीरो ॥१ जस्स य पसरच दवणं णिकलंक अमियगुणेण संजुत्तं । भवाणं सुह-कंद सो सूरि जयउ प्रभियांसि ॥२ जेण विrिमिम विति सारतयस्स सयलगुणभरिया । जो भव्वाणं सुहिदा ससमय पर समय- वियाणया सला ॥३
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प्राचार्य अमृत चन्द्रसूरि ने अपनी गुरु परम्परा भीर गण-गच्छादिका कोई उल्लेख नहीं किया। वे निलप व्यक्ति थे । उन्होंने अपने ग्रंथों में अपने नाम के अतिरिक्त कोई भी वाक्य श्रात्म प्रशंसा-परक नहीं लिखा। किन्तु उन्होंने यहाँ तक लिखा है कि वर्णों से पद बन गये, पदों से वाक्य वन गए, और वाक्यों से यह ग्रंथ बन गया। इसमें हमारा कुछ भी कर्तृत्व नहीं है ।
श्राचार्य मृत चन्द्र विक्रम की दशवीं शताब्दी के प्रध्यात्म रसज्ञ विशिष्ट विद्वान थे। संस्कृत और प्राकृत भाषा पर उनका असाधारण अधिकार था। उन्होंने शताब्दियों से विस्मृत कुन्दकुन्दाचार्य की महत्ता एवं प्रभुता को पुनरुज्जीवित किया है। उन्होंने निश्चय नय के प्रधान ग्रन्थों को टोका लिखते हुए भी अनेकान्त दृष्टि को नहीं भुलाया है । समयसारादि टीका ग्रन्थों के प्रारम्भ में लिखा है कि जो अनन्त धर्मों से शुद्ध श्रात्मा के स्वरूप का अवलोकन करती है वह अनेकान्तरूप मूर्ति नित्य ही प्रकाशमान हो ।
प्रतन्त धर्मणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयी मूर्ति नित्यमेव प्रकाशताम् ||
इसी तरह प्रवचनसार टीका के प्रारंभ में लिखा है कि जिसने मोह रूप अन्धकार के समूह को अनायास ही लुप्त कर दिया है, जो जगत तत्व को प्रकाशित कर रहा है ऐसा यह अनेकान्तरूप तेज जयवन्त रहे ।
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वर्ण: कृतानि चित्रः पदैः कृतानि वाक्यानि । arriः कृतं पवित्र शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ॥
- पुरुषाः सि० २२६