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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २ हेलोल्लुप्तं महामोहलमस्तोमं जयत्यवः ।
प्रकाशयज्जगत्तत्त्वभनेकान्तमयं मह ।। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में तो उसे परमागम का बीज अथवा प्राण बतलाया है, और जन्मान्ध मनुष्यों के हस्ति विधान का निषेध कर समस्त नय विलासों के विरोध को नष्ट करने वाले अनेकान्त को नमस्कार किया है। टीकात्रों के अन्त में भी उन्होंने स्याद्वाद को और उसको दृष्टि को स्पष्ट करते हुए तत्त्व का निरूपण किया है। इससे उनको अनेकान्त दृष्टि का महत्व प्रतिभाषित होता है।
इनको कुन्दकुन्दाचार्य के प्राभूतत्रय-समयसार-प्रवचनसार और पंचास्त काय-इन तीनों ग्रन्थों को टीकाएँ बड़ी मार्मिक और हृदय स्पर्शी और उनको हार्दको प्रकट करने वाली हैं। समयासार की टीका में तो उसके अन्त: रहस्य का केवल उद्घाटन ही नहीं किया गया किन्तु उस पर समयानुवार-कलश की रचना कर बस्तुतः उस पर कलशारोहण भी किया है । अध्यात्म के जिस बीज को आचार्य कुन्दकुन्द वे बोया, और उसे पहलवित, पुष्पित एवं फलित करो का थेय आचार्य अमृत चन्द्र को ही प्राप्त है। टोकात्रों का अध्ययन कर अध्यात्म रसिक विद्वान दांत तले अंगुलो दवाकर रह जाते हैं । टीकात्रों की भाषा प्रौढ़, प्रभावशाली और गतिशील है। और विषय की स्पष्ट विवेचक हैं। अध्यात्म दृष्टि से लिखी गई ये रोकाएं स्वसमय परसमय को बोधक है; और अध्येता के लिए महत्वपूर्ण विषयों की परिनायक हैं इनमें निश्चय योर व्यवहार दोनों दष्टियों से वस्तु तत्व का विचार किया गया है सम्यग्दृष्टि जीव वस्तुतत्व का परिचान करने के लिए दोनों नयों का अवलम्बन लेता है परन्तु श्रद्ध में वह अनद्ध नय के पालम्बन को हेय समझता है, यही कारण है कि वस्तु तत्व का यथार्थ परिज्ञान होने पर प्रगढ़ नय का पालम्बन स्वयं छूट जाता है इसी से कुन्दकुन्दाचार्य ने उमय नयों के आलम्बन से बस्तु स्वरूप का प्रति सदन किया है।
आपकी इन तीनों टीकाओं के अतिरिक्त आपकी दो कृतियां और भी हैं। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय और तत्त्वार्थसार। इन दोनों में भी उनके वैशिष्टय की स्पष्ट छाप है।
पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय २२६ श्लोकों का प्रसादगुणोपेत एक स्वतंभ ग्रन्थ है । इसका दूसरा नाम जिन वचन रहस्य कोश है। ग्रन्थ के नाम से ही उसका विषय स्पष्ट है इसमें श्रावक धर्म के वर्णन के साथ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्याक्चरित्र का सुन्दर कथन दिया हुआ है । जहां इस ग्रंथ के नाम में बैशिष्ट्य है वहां पाद्यन्न में भी वैशिष्ट्य है। संथ के आदि में निश्चय नय और व्यवहार नय को चर्चा है तो अन्त में रत्नत्रय को मोक्ष का उपाय बतलाया गया है यह कथन श्रावकाचारों में हैं । पुण्यासवको गुभोपयोग का अपराध बतलाना अमृतचन्द्र को वामी की विनता है।
विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान पं० आशाधर जो ने अनगार धीमत को टोका में प्राचार्य अमृतचन्द्र का ठक्कूर विशेषण के साथ उल्लेख किया है-'एतदनुसारेणव ठवकुरोपोदभपाठीत्-लोके शास्त्राभासे समयाभासे च. देवताभासे । (पृ०१६०) एतच्च विस्तरेण ठनकुरामृतचन्द्रसूरि विरचित समयसारटोकायां द्रष्टव्यम्(पृ. ५८८)।
ठक्कर या ठाकुर शब्द का प्रयोग जागोरदारों और प्रोहदेदारों के लिये तो व्यवहुत होता था। किन्तु ठक्कर' शब्द गोत्र का भी वाची है । अाज भी सवाल आदि जातियों के गोत्रों में प्रयुक्त देखा जाता है।
- तत्वार्थसार--गृद्धपिच्छाचार्य के तत्वार्थसूत्र के सार को लिए हुए होने पर भी अपना शिष्ट्य रखता है। यह २२६ श्लोकों की रचना होते हुए भी, प्रसाद गुणापत एक स्वतंत्र संथ है । जिसमें सम्यादर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र का सुन्दर कथन किया है। तत्त्वार्थसार नाम से भी यह ध्वनित होता है कि इसमें तत्वार्थ सूत्र प्रतिपादित तत्त्वों का ही सार संग्रहीत है । तत्त्वार्थ राजवार्तिकादि में प्रतिपादित कितनी ही विशिष्ट बातों का इसमें संकलन किया गया है। प्राचार्य प्रमतचन्द्र ने इसे मोक्षमार्ग पर प्रकाश करने वाला एक प्रमुख दीपक बतलाया है । क्योंकि इसमें युक्ति भागम से सुनिश्चित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का स्वरूप
१. अथ तत्त्वार्थसारोऽयं मोक्ष मार्गकीपक ।
-तत्वार्थसार २