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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ यह प्रतिष्ठाचार्य भी थे। इन्होंने सम्वत् १६२२ वैशाख सुदी ३ सोमवार के दिन एक मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी । इनका समय १७वीं शताब्दी है । ५४६ भट्टाकलंकदेव यह संघ देशीयगण पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के चारुकीति पंडिताचार्य का शिष्य था । इसने अपने गुरु का परिचय निम्न वाक्यों में दिया है-"मूल संघ - देशीयगण पुस्तकगच्छ कु दकुन्दान्वय- विराजमान श्रीमद्रायराज गुरु मण्डलाचार्य महावादि वादीश्वर वादिपिता मह सकल विद्वज्जन चक्रवतिवल्लालराय जीवरकापाल केत्यादि कान्ति farnी विराजमान श्रीमन्ताकति देिवाचार्य शिष्य परम्परापाठ श्री संगीतपुर सिंहासन पट्टाचार्य श्रीमदकलंक देवनु" । कवि की एकमात्र कृति 'कर्णाटक शब्दानुशासन' नाम का व्याकरण है। जिसे कवि ने शक सं० १५२६ ( ई० सन् १६०४ ) में निर्मित किया है । विलेगियातालु के एक शिलालेख से इसको परम्परा विषयक कुछ बातें ज्ञात होती हैं । देवचन्द्र ने अपनी 'राजावली कथे' में लिखा है कि सुधापुर के भट्टाकलंक स्वामी सर्वशास्त्र पढ़कर महा विद्वान हुए । इन्होंने प्राकृत संस्कृत मागधी आदि षट् भाषाकवि हो कर कर्णाटक व्याकरण की रचना की । यह कनड़ी भाषा का व्याकरण है इसमें ४ पाद और ५९२ सूत्र हैं। इन सूत्रों पर भाषा मंजरी नाम की वृत्ति और मंजरीमकरंद नाम का व्याख्यान है । सूत्र, वृत्ति, और व्याख्यान तीनों ही संस्कृत में हैं । प्राचीन कनड़ी कवियों के ग्रन्थों पर से अनेक उदाहरण दिये हैं। कर्णाटक भाषा भूषण की अपेक्षा यह विस्तृत व्याकरण है । यह कनड़ी भाषा का अच्छा व्याकरण है। कवि ने इसमें अपने से पूर्ववर्ती निम्न कवियों-पंप, होन्न, रन्न, नागचन्द्र, नेमिचन्द्र, रूद्रभट्ट, भागल, अंडय्य, मधुर का स्मरण किया है। कवि का समय ईसा की १७वीं शताब्दी का प्रथम चरण (१६०४ ) है | ( कर्नाटक कवि चरित) कवि भगवतीदास सकलचन्द्र के प्रशिष्य पट्टधर भ० यह काष्ठासंध माथुरगच्छ पुष्कर गण के विद्वान भट्टारक गुणचन्द्र के और भट्टारक महेन्द्रसेन के शिष्य थे। महेन्द्र सेन दिल्ली की भट्टारकीय गद्दी के पट्टधर थे । इनको अभी तक कोई रचना देखने में नहीं प्राई और न कोई प्रतिष्ठित मूर्ति ही प्राप्त हुई है। इससे इनके सम्बन्ध में विशेष विचार करना सम्भव नहीं है । भ० महेन्द्र सेन प्रस्तुत भगवतीदास के गुरु थे, इसीसे उन्होंने अपनी रचनाओं में उनका मादर के साथ स्मरण किया है। यह बुढ़िया जिला अम्बाला के निवासी थे। इनके पिता का नाम किसनदास था और जाति अग्रवाल और गोत्र वंसल था। इन्होंने चतुर्थ वय में मुनिव्रत धारण कर लिया था। यह संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश भ० श्री विजयकीर्ति देवाः तत्पट्टे भ० श्री शुभचद्र देवाः अनेकान्त वर्ष ४० ५०३ १. संवत् १६२२ वंशास सुदि ३ सोमे श्री कुन्दकुन्दान्वये तत्पट्टे भ० सुमतिकोति गुरूपदेशात् ब्रुवड शातीय गा रामा भार्या वीरा २. बूडिया पहले एक छोटी सी रियासत थी, जो मुगल काल में धन-धान्यादि से खूब समृद्ध नगरी थी। जगाधरी के बस जाने से बुढ़िया की अधिकांश आबादी वहाँ चली गई भ्राजकल वहां खण्डहर अधिक हो गये हैं, जो उसके गत वैभव की स्मृति के सूचक है। ३. गुरुमुनि माहिदसेन भगोती तिस पद पंकज रंन भगती । किसनदास वरिण तनुज भगोती, तुरिये महिउ व्रत मुनि जु भगोती ॥ नगर दुढिये वर्क्स भगोती, जन्मभूमि है श्रासि भगोती । अग्रवाल कुल बंसल गोती, पण्डित पदजन निरख मगोती ||८३ - वृहत्सीता सतु, सलावा प्रति
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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