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________________ १५वीं, १६वौं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि चक्रसेन और मित्रसेन । चक्रसेन की पत्नी का नाम कृष्णावती था, और उससे केवलसेन तथा धर्म सेन नाम के दो पुत्र हुए। मित्रसेन की धर्मपत्नी का नाम प्रमोश ! जमली को गुगपत्र हुए। इनमें प्रथम पुत्र का नाम भगवानदास था, जो बड़ाही. प्रतापी और गंध का नायक था। और दूसरा पुत्र हरिवंश भी धर्म प्रेमी और गुण सम्पन्न था । भगवान दास की धर्मपत्नी का नाम केशरिदे था। उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे-महासेन, जिनदास और मुनिसूत्रत । संघाधिप भगवानदास ने जिनेन्द्र भगवान की प्रतिष्ठा कराई थी और संघराज की पदवी को प्राप्त किया था। वह दान में कर्ण के समान था। इन्हीं भगवानदास की प्रेरणा से पंडित रूपचन्द्र जी ने प्रस्तुत पाठ की रचना की थी। पंडित रूपचन्द्र जी ने इस ग्रन्थ को प्रशस्ति में नेत्रसिंह नाम के अपने एक प्रधान शिष्य का भी उल्लेख किया है, पर वे कौन थे और कहां के निवासी थे, यह कुछ मालूम नहीं हो सका। उक्त सस्कृत पाठ के अतिरिक्त कबि रूपचन्द्र का हिन्दी भाषा की निम्न कृतियां उपलब्ध हैं, जिनमें रूपचन्द्र दोहाशतक, पंचमंगल पाठ, नेमिनाथ रास, जकड़ी और खटोलना गीत प्रादि हैं। सुमतिकोति मूल संघ स्थित नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण और कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्टधर थे। भट्टारक लक्ष्मीचन्द्र इनके दीक्षा गुरु और भ० वीरनन्द्र शिक्षागुरु थे। साथ में सुमतिकीर्ति ने ज्ञानभूपण को गुरु मानकर नमस्कार किया है। इन्होंने प्राकृत पंचसंग्रह की संस्कृत टीका हसा ब्रह्मचारी के उपदेश से वि० सं० १६२० में भाद्रपद शुक्ला दशमी के दिन ईडर के आदिनाथ मन्दिर में बनाकर समाप्त को है। पंचसंग्रह में जीव समास, प्रकृति समुत्कीर्तन, कर्मस्तव शतक और सप्तति इन पांच प्रकरणों का संग्रह है। प्राकुल संग्रह की यह मूल प्राकृत रचना बहुत पुरानी है। इस पर पपनन्दी की प्राकात वृत्ति भी है। इस पंचसग्रह का १०वी ११वीं शताब्दी में तो संस्कृतकरण श्रीपाल सुत डड्ढा और अमितगति ने किया है। इतना ही नहीं किन्तु पंचसंग्रह की प्राकृत गाथाएं धबला में उद्धृत पाई जाती है। सम्भवत: मूल पंचसंग्रह प्रकलंक देव के सामने भी रहा है। पं० आशाधर जी ने मुलाराधना दर्पण नाम की टीका में इसकी ५ गाथाएं उद्धत को हैं। इसके उत्तर तंत्रकर्ता लोहायरिया भट्टारक प्रय भूदिम मायरिया वाक्य से प्रात्म भूति आचार्य जान पड़ते हैं। इससे इसकी प्रामाणिकता और प्राचीनता झलकती है । भट्टारक सुमतिकीति ने इसकी टीका १७वीं शताब्दी के पूर्वाधं में बनाई है। सुमतिकीति ने धर्मपरीक्षा नाम का एक ग्रन्थ गुजरातो भाषा में १६२५ में बनाया है। ऐ०५० दिन सरस्वता भवन वम्बई की सूची में 'उत्तर छत्तीसो' नामक एक संस्कृत ग्रन्थ है जो गणित विषय पर लिखा गया है, उसके कर्ता भी सम्भवतः यही सुमतिकोति हैं। सं० १६२७ में त्रिलोकसार रास को रचना कोदादा शहर में की। की दीका से पूर्ववर्ती हैं । मूति लेखों और मन्दिरों की विशालता से गोलापून्धिय गौरवान्वित है। वर्तमान में भी उसके पास अनेक शियरवन्द मन्दिर विद्यमान हैं। गोला पूर्वान्वय के संवत् ११६८,१२०२, १२०७.१२१३ भोर १३. आदि के अनेक लेख है। जिनसे इस जाति की सम्पन्नता पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । इस उपजाति में भी अक प्रनिरिटन विद्वान, ग्रन्थकार, और श्रीसम्पन्न परिवार रहे हैं। वर्तमान में भी अनेक डाक्टर, आचार्य और विद्वान एवं व्याख्याता आदि हैं। विशेष परिचय के लिए देखें 'शिलालेखों में गोसापूर्वान्वय' भनेकान्त वर्ष २४, f+० ३ पृ. १०२ १. "तत्व गुण गाम माराहणा इदि । कि कारणं ? जेण आराषिजन्ते अशाग्र दसरा-गाए-बरित्तन्तवाणि ति। पातारा निविधा-मूलततक्त्ता, उत्तरतंत कत्ता, उत्तरोसर तंत कत्ता चेदि । तत्व मूलतत कत्ता भयव महावीरो । उत्तरतनकत्ता गोदम भयवदो । उतरोत्तरतंतकत्ता लोहायरिया भट्टारक अप्प भूदिअ आयरिया ।" -पंच सं० ५४३,४४)
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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