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________________ १५वी, १६वी, १७वी और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि और हिन्दी भाषा के अच्छे विद्वान कवि थे। इनको अधिकांश रचनाएं हिन्दी पद्य में लिखी गई हैं, जिनको संख्या ६० के लगभग है। उनमें कई रचनाएं भाषा साहित्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, जैसे अनेकार्थ नाममाला (कोष) सीतासत, टंडाणारास, मादित्य व्रतरास, खिचड़ी रास आदि' | इनको सब उपलब्ध रचनाए' संवत् १६५१ से १७०४ तक की उपलब्ध है, जो चकसा बादशाह अकबर जहांगीर और शाहजहा के राज्य में रची गई है। ज्योतिष मौर वैद्यक की रचनाओं को प्रशस्ति सस्कृत म रची थी, रचना हिन्दा पद्या में है जो कारजा के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित हैं। इनके रचे अनेक पद और गीत मादि भा मिलते हैं। रचनाओं में अनक रचना-स्थलों का उल्लेख किया है। उनमें बुढ़िया (प्रम्बाला) दिल्लो, आगरा, हिसार, कपित्थल, सिहरदि आदि । कवि को रचनाए मनपूरो, दिल्ली, अजमेर आदि के शास्त्र भंडारों में उपलब्ध है। कवि की सब रचनाए संबत् १६५१ से १७०४ तक की उपलब्ध होती हैं । अतएव कवि का कार्य काल ५४ वर्ष है। कवि की अपभ्रश भाषा को तीन रचनाएं उपलब्ध हैं-मृगांक लेखाचरिउ, सुगंधदसमी कहा और मुकुट सप्तमी कथा। मगांक लेखाचरित में चार संधिया है जिनमें कवि ने चन्द्रलेखा और सागरचन्द के चरित वर्णन करते हुए पका केशीलतः माहात्म्य ख्यापित किया है। चन्द्रलेखा विपदा के समय साहस और धैयं का परिचय देती हई अपने शोलवत से जरा भी विचलित नहीं होतो, प्रत्युत उसमें स्थिर रहकर अपने सतीत्व का जो प्रादर्श उपस्थित किया है, वह अनुकरणीय है । ग्रन्थ की भाषा अपभ्रंश होते हुए भी हिन्दी के अत्यधिक नजदीक है। सा कि उसके दोहों से स्पष्ट है ससिलेहा णियक्रत सम, धारई संजमु सार जम्मणु मरण जलंजली, दाण सुयणु भव-तार ॥ करि तणु तउ सिउपुर गयज, सो वणि सायरचंदु । ससिलेहा सुरवर भई तजि तिय-तणु प्रणिदु ॥ मुकुट सप्तमी कथा में मुकुट सप्तमी व्रत को अनुष्ठान-विधि का कथन किया गया है। सुगंधदसमी कथा में "भाद्रपद शुक्ला दसमी के व्रत का विधान और उसके फल का वर्णन किया गया है। शेष सभी रचनाएं हिन्दी की हैं। कवि का समय १७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और अठारहवीं का पूर्वार्ध है। भ. सिंहनन्दी मूलसंघ पुष्कर मच्छ के भट्टारक शुभचन्द्र के पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे। इन्होंने 'पंच नमस्कार दीपिका' नाम का ग्रन्थ सं० १६६७ में कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा के दिन समाप्त किया है। अन्चस्तत्व रसतुचंद्र कलिते (१६६७) श्री विक्रमादित्यके । मासे कातिक नामनीह धबले पक्ष शरत्संभवे । वारे भास्वति सिद्ध नामति तथा योगेष पूर्णातियौ, नक्षत्रे ऽश्वनि नामनि तत्वरसिकः पूर्णीकृतो ग्रन्थकः ॥५५ ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन बम्बई की ग्रन्थ सूची में 'प्रततिथि निर्णय' नाम का एक पथ भ सिंहनन्दी के नाम से दर्ज है। यह ग्रन्थ आरा के जैन सिद्धान्त भवन में भी पाया जाता है, पर वह इन्हीं सिंहनन्दी १. देखो, अनेकान्त वर्ष ११ किरण ४-५ तथा अनेकान्त वर्ष २० किरण ३ १०१०४ २. संवत सोलह सइ जु इक्यावन, रविदिनु मास कुमारी हो, जिन वंदनु करिफिरि घरि-आए, विजय दसमि जयारी हो (अर्गलपुर जिनवंदना) मह रचना अकबर के राज्य में रवी गई है। ३. श्री मूल संघे वर पुष्करास्ये गम्छे सुजानः शुभचन्द्र सरि । तस्यात्र पट्ट जनि सिंहनन्दिर्भट्टारकोऽभूद्विषां वरेण्यः ॥५३
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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