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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २
की कृति है या अन्य की, यह ग्रन्थ के अवलोकन के बिना निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। इनके अतिरिक्त कवि की अन्य रचनाए' अन्वेषणीय हैं । कवि का समय १७ वों शताब्दी है।
पंडित शिवाभिराम कवि ने अपना परिचय नहीं दिया और न गुरु परम्परा का ही उल्लेख किया है। केवल अपने कं। 'पुपद बनिय' का पुत्र बतलाया है । पंडित शिवाभिराम १७वीं शताब्दी के विद्वान थे। इनकी दो कृतियां उपलब्ध हैं पट् चतुर्थ-वर्तमान-जिनार्चन; और चन्द्रप्रभ पुराण सग्रह (अष्टमजिन पुराण संग्रह)।
इनमें से प्रथम ग्रन्थ को रचना मालवदेश में स्थित बिजयसार के 'दिविज नगर के दुर्ग में स्थित देवा लय में, जब अरिकुलशत्रु सामन्तसेन हरितनु का पुत्र अनुरुद्ध पृथ्वी का पालन कर रहा था. जिसके राज्य का प्रधान सहायक रघुपति नाम का महात्मा था। उसका पुत्र प-यराज ग्रन्थ कर्ता का परम भक्त था । उसो की सहायता से वि० सं० १६१२ में बनाकर समाप्त किया है
नवशि (?) च नयनाख्ये कर्मयुक्तेन चन्द्रे, गतिवति सति जतो विक्रमस्येव काले ।
निपततितुषारे माघचद्रावतारे जिनवर पदचर्चा सिद्धये सप्रसिद्धा॥१५ दूसरे ग्रन्थ में आठव तीर्थकर चन्द्रप्रभ जिन का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। उसो २७ सर्ग। प्रशस्ति में बतलाया है कि वहृदगुर्जरवंश का भूषण राजा तारासिंह था, जो कम्भनगर का निवासी था और दिल्ली के बादशाह द्वारा सम्मानित था। उसके पट पर सामंतसिंह हआ जिसे दिगम्बराचार्य के उपदेश से जैन धर्म वा। लाभ हुमा था। उसका पुत्र पसिंह हुमा, जो राजनीति में कुशल था। उसकी धर्मपत्नी का नाम 'कोणा देवो' था, जो शीलादि सद्गुणों से विभूषित थी। उसीके उपदेश एवं अनुरोध से उक्त चरित ग्रन्थ को रचना हुई है। ग्रन्थ में रचना काल दिया हमा नहीं है । अतएव निश्चित रूप से यह बतलाना कठिन है कि शिवाभिराम ने इस ग्रंथ की रचना कब को है । पर प्रथम ग्रन्थ की प्रशस्ति से यह स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ को रचना १७वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में
पंडित अक्षयराम यह भट्टारक विद्यानन्द के शिष्य थे। भट्टारकीय पंडित होने के कारण संस्कृत भाषा के विद्वान थे। इनका सभय विक्रम की १८वीं शताब्दी है। जयपुर के राजा सवाई जयसिंह के प्रधान मन्त्री श्रादक ताराचन्द्र' ने चतुर्दशी का व्रत किया था, उसी का उद्यापन करने के लिये पंडित अक्षयराम ने संवत् १५०० में चैत्र शुक्ला पंचमी के दिन 'चतुर्दशीव्रतोद्यापन' नामक ग्रन्थ की रचना की थी।
प्रब्वे विशून्याष्टकांके (१८००) चैत्रमासे सिते दले । पंचम्यां च चतुर्दश्यां ब्रतस्योद्योतनं कृतं ॥४॥
कवि नागव इसके पिता का नाम 'सोड् डेसे ट्टि' था, जो कोटिलाभान्वय का था और माता का नाम 'चौडाम्बिका था। कवि ने 'माणिकस्वामिचरित' की रचना की है। यह ग्रन्थ भामिनी षट्पदी में लिखा गया है, इसमें ३ सन्धियां और २९८ पद्य हैं । इसमें माणिक्य जिनेश का चरित अंकित किया गया है। उसमें लिखा है-कि देवेन्द्र ने अपना 'माणिक जिनबिम्ब' रावण की पत्नी मंदोदरी को उसकी प्रार्थना करने पर दे दिया और वह उसकी पूजा करने लगी। राम-रावण युद्ध में रावण का वध हो जाने के बाद मन्दोदरी ने उस मूर्ति को समुद्र के गर्भ में रख दिया। बहुत समय बीतने पर 'शंकरगण्ड' नाम का राजा एक पतिव्रता स्त्री की सहायता से माणिक स्वामी को वह मूर्ति ले प्राया
-. -- -- --... -. ...------ १. श्री जयसिंह भूपस्य मंत्रिमुख्योऽग्रएो सतां ।
धावकस्ताराचंद्रास्थरतेनेदं प्रत समुसतं ।। -जैन अन्य प्र०भा०११०२७