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________________ १५वीं १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ५५.१ और निजाम स्टेट के 'कुलपाक' नाम के तीर्थस्थान में उसको स्थापित किया। इस मूर्ति के कारण वह एक तीर्थ बन गया । कवि ने ग्रन्थ के शुरू में माणिक जिन की, सिद्ध, सरस्वती, गणधर और यक्षत्यक्षी की स्तुति की है । ग्रन्थ में समय नहीं दिया। संभवतः ग्रन्थ को रचना सन् १७०० के लगभग हुई है ( अनेकारत वर्ष १, किरण ६-७ ) पं० जगन्नाथ इनकी जाति खंडेलवाल थोर गोत्र सोगाणी था। इनके पिता का नाम सोमराज श्रेष्ठी था । जगन्नाथ ज्येष्ठ पुत्र थे और वादिराज लघु पुत्र थे। जगन्नाथ संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे। यह दोड़ा नगर के निवासी थे, जिसे 'तक्षकपुर' कहा जाता था । ग्रन्थ प्रशस्तियों में उसका नाम तक्षकपुर लिखा मिलता है । १६वीं १७वीं शताब्दी में टोडा नगर जन-धन से सम्पन्न नगर था। उस समय वहाँ राजा रामचन्द्र का राज्य था। वहां खंडेलवाल जैनियों की अच्छी बस्ती थी। टोहा में भट्टारकीय गद्दी थी, और वहां एक अच्छा शास्त्र भडार भी था। प्राकृत और संस्कृत भाषा के अच्छे ग्रन्थों का संग्रह था। वहां अनेक सज्जन संस्कृत के विद्वान हुए हैं। संवत् १६२० में वहां की गद्दी पर मंडलाचार्य धर्मचन्द्र विराजमान थे, जिन्होंने संस्कृत में गौतम चरित्र की रचना की है। यह ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है । पंडित जगन्नाथ भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। इन्होंने 'श्वेताम्बर पराजय की प्रशस्ति में अपने को कवि गमक-बादि और वाग्मि जैसे विशेषणों से उल्लेखित किया है। - कवि गमक- वादिवाग्भित्व गुणालंकृतेन खाडिल्लवं पोमराज श्रेष्ठ सुतेन जगन्नाथ वादिना कृती केवलिभुक्ति निराकरणं समाप्तम् ।' कर्मस्वरूप नामक ग्रन्थ को प्रशस्ति में कवि ने अपना नाम ग्रभिनव वादिराज सूचित किया हैं । कवि की निम्न कृतियां उपलब्ध हैं- चतुविशतिसंधान, (स्वोपज्ञटीका सहित) सुख निधान, नेमिनरेन्द्रतांत्र सुषेणचरित्र, कर्म स्वरूप वर्णन । चतुविशति संधान-ग्धरा छन्दात्मक निम्न पद्य को २५ बार लिख कर २५ अर्थ किये हैं। एक-एक प्रकार में २४ तीर्थकरों की अलग-अलग स्तुति की है, और मन्तिम २५वें पद्य में समुच्चय रूप से चौबीस तीर्थंकरों को स्तुति की है। श्रीयान् श्री वासुपूज्यो वृषभजिनपतिः श्रीब्रुमांकोऽथ व यंक: पुष्पदन्तो मुनिसुव्रत जिनोऽनंतवाक् शान्तिः पद्मप्रभोऽरो विमलविभुरसौ श्री सुपार्श्वः । वर्द्धमानोको | मल्लिनेमिर्न मिर्मा सुमतिश्चतु सच्छ्री जगन्नाथ पोरं ॥१॥ दूसरी रचना 'श्वेताम्बर पराजय' है । कवि ने इस ग्रन्थ को विबुध लाल जी की आज्ञा से बनाया है। इसमें श्वेताम्बरों द्वारा मान्य 'केवलिभुक्ति' का सयुक्तिक खण्डन किया है। ग्रन्थ में 'नेमिनरेन्द्र स्तोत्र स्वोपज्ञ' का एक पद्य उद्धृत किया है : यत तय न भुक्तिर्नष्टः दुःखोदयत्वाद्वसनमपि न चांगे वीतरागत्वतश्च । इति free हेतू न ह्यसिद्धार्थासिद्धो विशद - विशद दृष्टीनां हृदिलः (?) सुयुक्तये ।" कवि ने इस ग्रन्थ की रचना संवत् १७०३ में दीपोत्सव के दिन समाप्त की थी। उसका मन्तिम पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है : इति श्वेताम्बर पराजये कवि गमक- वादि- वाग्मिस्व गुणालंकृतेन खाडिल्स वंशोद्भव पोमराज श्रेष्ठि सुतेन |" जगन्नाथ वादिना कृतौ केवलिभुक्ति निराकरणं समाप्तम् तीसरी रचना सुखनिधान है— इस ग्रन्थ में विदेह क्षेत्रीय श्रीपाल चक्रवर्ती का कथानक दिया हुआ है । प्रस्तुत काव्य ग्रन्थ की रचना सरस और प्रसाद गुण से युक्त है । इस ग्रन्थ की रचना कवि ने राजस्थान में 'मालपुरा' — कर्मस्वरूप वर्णन प्र० १. पंडित जगन्नार्थ परास्याभिनवत्रादिरा में विरचिते कर्मस्वरूप ग्रन्थे ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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