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________________ ११२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ (जयपुर) नामक स्थान में की है। कवि ने इस ग्रन्थ में अन्यच्च अस्माभिरुक्तं शृङ्गार समुद्र काव्ये' वाक्य के साथ अपने शृगार समुद्र काव्य नाम के ग्रन्थ का उल्लेख किया है। इस कृति का अन्वेषण होना चाहिये कि किसी भण्डार में यह ग्रन्थ उपलब्ध है या नहीं। इस ग्रन्थ की ५१ पत्रात्मक एक प्रति पाटौदी भण्डार जयपुर में है जिसमें उसका रचना काल संवत् १७०० असोज सुदी १०मी दिया है। चौथी रचना 'नेमिनरेन्द्र स्तोत्र' है। इसमें २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ का स्तवन किया गया है। रचना सुन्दर है और अभी अप्रकाशित है । इसमें भी केबलिभकिा और कवलाहार का निषेध किया गया है । इस पर स्वोपन टीका भी निहित है। इसे प्रकाश में लाना चाहिये । इसका रचना काल भी ज्ञात नहीं हुआ। पांचधी रचना 'सुषेण चरित्र' है। इस ग्रन्थ की ४६ पत्रात्मक एक प्रति ग्रामेर भण्डार में उपलब्ध है, जो सं० १८४२ को लिखी हुई है। छठवीं रचना 'कर्मस्वरूप वर्णन है, जिसमें ज्ञानावरणादि कर्मों को मल और उत्तर प्रकृतियों के वर्णन के साथ प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप चार बंधों का स्वरूप निर्दिष्ट किया है। कवि ने इस ग्रन्थ को संवत १७०७ के चैत महीने के शुक्ल पदा की दोइज के दिन समाप्त किया है : वर्षे तत्व नभोश्य परिमिते (१७०७) मासे मधी सून्दरे। तत्पक्षे च सितेतरेहनि तथा नाम्ना द्वितीयाहये । श्री सर्वज्ञ पदांबुजानति गलव ज्ञानावृति प्राभवा स्त्रविद्येश्वरता गता व्यरचयन् श्री वादिराजा इमम ।। कवि का समय १७वीं शताब्दी का अन्तिम अंश और १८वीं शताब्दी का पूर्वाध है। कवि वादिराज यह खंडेलवंशी पोमराज श्रेष्ठी के लघु पुत्र थे । ज्येष्ठ पुत्र पंडित जगन्नाथ थे, जो संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित घे । इनका गोत्र 'सौगाणी' था। यह तक्षक नगर (वर्तमान टोडा नगर) के निवासी थे। लघु पुत्र का नाम वादिराज था । जो संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान, कवि थे और राजनीति में पटु थे । इनके चार पुत्र थे--रामचन्द्र, लाल जी, नेमिदास और विमलदास । विमलदास के समय 'टोडा' में उपद्रव हुअा था जिसमें एक गुच्छक (गटका) भी लूट गया था। बाद में उसे छुड़ा कर लाये, वह फट गया था, और उसे सम्हाल कर रक्खा गया। यादिराज ने अपने को उस समय धनंजय, पाशाधर और वाग्भट का पद पारण करने वाला दूसरा वाग्भट बतलाते हुए लिखा है कि राजा राजसिंह दूसरा जयसिंह हैं और तक्षक नगर दूसरा प्रणहिलपुर है और मैं वादिराज दूसरा वाग्भट हूँ। धनंजयाशापरवाग्भटानां धसे पदं सम्प्रति वादिराजः। खांडिल्ल वंशोब्रुवपोमसजिनोक्ति पीयूष सतप्त गात्रः ॥३ वादिराज तक्षक मगर के राजा राजसिंह के महामात्य थे। राजसिंह भीमसिंह के पुत्र थे। कवि की इस समय दो रचनायें उपलब्ध हैं। वाग्भटालंकार की टोका 'कविचन्द्रिका' जिसका पूरा नाम 'वाग्भट्टालंकारावरि-कवि चन्द्रिका' है। इस टीका को कवि ने राज्य कार्य से अवकाश निकाल कर बनाई थी। पौर दूसरी रचना 'शानलोचन स्तोत्र' नाम का एक स्तोत्र प्रन्थ । यह स्तोत्र माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्य माला से १. संवत् १७५१ मगसिर वदी तक्षक नगरे खण्डेलवालान्वये सोगानी गोत्रे साह पोमराज तत्पुत्र साह वादिराजस्तपत्र सत्त्वार प्रथम पुत्र रामचन्द्र द्वितीय साल जी तृतीय नेमिदास, चतुर्थ विमलदास, टोडा में विपो हुओ, जब पाइपोषी सुटी, यहां थे खुडाई फटी सुटी संवारि सुधारि पाछी करी, भानावरणी कर्मक्षयार्थ पुत्रादि पठनायं शुभं भवतु । म.प्र. प्रशस्ति सं० भाग १ पृ. ३६ । २. इति मरवा रलवयालंकृत विद्यायित्तो विमल पोम श्रेष्टि कुल भूगो महामात्य पदच्छीमारमट महाकनिस्ताव दिष्ट देवतामभौष्टेति ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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