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________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि ४०३ करते हुए धार्मिक सिद्धांतों का अच्छा कथन किया है। किंतु लगता है कि कवि ने वीरनन्दि के चन्द्रप्रभ चरित्र के धार्मिक कथन को देखा है, दोनों को तुलना करने से कथन शैली की समानता का श्राभास मिलता है । ग्रन्थ में गुरु परम्परा का उल्लेख न होने से समय निर्णय करने में बड़ी कठिनाई हो रही है । कवि ने इस ग्रन्थ को हुंबड कुलभूषण कुमरसिंह के पुत्र सिद्धपाल के अनुरोध से बनाया है। श्रार इसीलिए उसकी प्रत्येक पुष्पिका में सिद्धपाल का नामोल्लेख किया है। जैसा कि उसके निम्न पुष्पिका वाक्य से प्रकट है : महाभव्य सिद्धपालसवणभूसणे महाकवि ने ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती प्राचार्य का उल्लेख करते हुए गणि कुन्दकुन्द समन्तभद्र देवनन्दि (पूज्यपाद) कलंक और जिनसेन सिद्धसेन का उल्लेख करते हुए आचार्य मन्द्र के मुनि जीवन के समय घटने वाली घटना द्वारा ग्राठवं तीर्थंकर के स्तोत्र का सामर्थ्य से चन्द्रप्रभ जिनका मूर्ति के प्रकट होने का उल्लेख निम्न वाक्यों में किया है। :-- चंदtate महाकवे महाराइजस कित्तिविरइए "इसिरि चंद पहसा मिणिव्वाण गमवणो नाम एयारी सन्धिपरिच्छेत्री समता । " "में समंतभद्दवि मुणिक, अम्मिलु णं पुण्णम हिचंषु । जिउ रंजिउ राया रुद्दकोडि जिग वृत्ति मिति सिपिडि फोडि । फुड दसविसासु । " नोहरिउ बिबुचंदप्पहासु उज्जयंतर और कलंक देव को तारादेवी के मान को दलित करने वाला बतलाया है। "अकलंकुणा पश्चक्खुणाणु जे तारादेविहि जिउमा । उज्जा लिउ सासण अगसिद्ध विद्धा िर्याल्लय समलबुद्धि ।" जिनसेन और सिद्धसेन को परवादियों के दर्प का भंजक बतलाया है । ' प्रस्तुत ग्रन्थ वीरनन्दि के चन्द्रप्रभ चरित के बाद बना है । अतः इसका रचनाकाल विक्रम को १२वीं या १३वीं शताब्दी हो सकता है। कुछ विद्वानों ने चन्द्रप्रभ के कर्ता यशः कीर्ति और भ० गुणकोति के पट्टबर यशःकीति को नाम साम्य के कारण एक मान लिया है, पर उन्होंने दोनों की कृतियों का ध्यान से समोक्षण नहीं किया, और न उनके भाषा साहित्य तथा कथन शैली पर ही दृष्टि डाली है । विचार करने से दोनों यशः कीर्ति भिन्न-भिन्न हैं। उनमें चन्द्रप्रभ चरित के कर्ता यशःकोति पूर्ववर्ती हैं, और पाण्डव पुराणादि के कर्ता यशःकीर्ति अर्वाचीन हैं। पाण्डव पुराणकी पुष्पिका वाक्य निम्न प्रकार है : 1 इण्ड पुराणे यण-मण-सवण-सुहयरे सिरिगुण कित्ति सिस्स मुनि जस कित्ति विरइए साधु वील्हा पुत हेमराज णामं किए मिनाह जुधिदुर- भीमाज्जु-ण णिव्वाण गमण नकुल सहदेव-सम्पट्ठसिद्धि बलहद्द - पंचम सग्ग गमण पयासणो णाम चउतीसमो इमो सग्गो समतो ।" इस पुष्पिका वाक्य के साथ चंदप्पह चरित्र का निम्न पुष्पिका वाक्य की तुलना कीजिए । "g far stafरए महाकवे महारुइजसकित्तिविरइए महाभव्व सिद्धपाल सवणनूसणे चंद पह सामि निव्वाण गमण वण्णणो णाम एयारहमो सन्धि परिच्छे समत्तो ।" दोनों के पुष्पिका वाक्य भिन्नता के द्योतक हैं। पाण्डव पुराण के कर्ता ने अपने से पूर्ववर्ती श्राचार्यों का कोई उल्लेख नहीं किया। हां ग्रपनी भट्टारक परम्परा का अवश्य किया है। मनोति श्रास | प्रस्तुत मदनकीर्ति वादीन्द्र विशाल कीर्ति के शिष्य थे और बड़े भारी विद्वान थे। इनकी शासनचतुस्त्रिं १. जिससे सिद्धसेरा वि भयंत परवार दप्प-भंजरण-कमंत | --चन्दप्रभ चरिउ प्रशस्ति
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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