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________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के प्राचार्य, विद्वान और कवि उनकी विस्तृत चैत्यपद्धति को प्रमुदित करने वाली प्रकट किया है यथा- पुरुषोत्तम राहडप्रभो कस्य न हि प्रमदं ददाति सद्यः । वितता तव चंत्य पद्धतिवतिचलध्वजमालधारणी ॥ ४२३ afa ने अपने पिता नेमकुमार की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि घूमने वाले भ्रमर से कम्पित कमल के मकरन्द (पराग) समूह से पूरित, भडौंच श्रथवा भूमुकच्छ नगर में नेमिकुमार की अगाध बावडी शोभित होतो है । यथा परिभमिरभमरकं पिरसरूमयरं बभूंज पंजरिया । बावी सहइ प्रगाहा णेमिकुमारस्स भगच्छे || इस तरह यह छन्द ग्रंथ बड़ा हो महत्वपूर्ण जान पड़ता है और (प्रकाशित करने योग्य है । काव्यानुशासन यह ग्रन्थ मुद्रित हो चुका है। इस लघुकाय ग्रन्थ में ५ अध्याय हैं जिन में क्रमशः ६२,७५,६८,२६, और ५८ कुल २८६ सूत्र हैं। जिनमें काव्य-सम्बन्धी त्रिषयों का रस, अलङ्कार, छन्द और गुण दोष वाक्य दोष श्रादि का कथन किया गया है। इसकी स्वोपज्ञ अलंकारतिलक नामक वृत्ति' में उदाहरण स्वरूप विभिन्न ग्रन्थों के अनेक पद्य उद्धृत किये गये हैं जिनमें कितने ही पद्य ग्रन्थ कर्ता के स्वनिर्मित भी होंगे, परन्तु यह बतला सकना कठिन है कि वे पद्य इनके किस ग्रन्थ के हैं। समुद्धत पद्यों में कितने ही पद्य वडं सुन्दर और सरस मालूम होते हैं। पाठकों की जानकारी के लिए दो तीन पद्य नीचे दिये जाते हैं :-- कोऽयं नाथ! जिनो भवेत्तववशी हुं हुं प्रतापी प्रिये, तहि विमुञ्च कातरमते शौर्यावलेपनियां ॥ मोहोऽनेन विनिर्जितः प्रभुरसौ तfककरा: के वयं इत्येवं रति कामल्पविषयः सोऽयंजिनः पातु वः ॥ एक समय कामदेव और रति जङ्गल में विहार कर रहे थे कि अचानक उनको दृष्टि ध्यानस्थ जिनेन्द्र पर पड़ी, उनके रूपवान प्रशांत शरीर को देखकर कामदेव और रति का जो मनोरंजक संवाद हुआ है उसीका चित्रण इस पद्य में किया गया है। जिनेन्द्र को मेरुवत् निश्चल ध्यानस्थ देखकर रति कामदेव से पूछती है कि हे नाथ ! यह कौन है ? तब कामदेव कहता है कि यह जिन हैं- राग-द्वेषादि कर्म शत्रुओं को जीतने वाले हैं- पुनः रति पूछतो है कि यह तुम्हारे वश में हुए ? तत्र कामदेव उत्तर देता है कि है प्रिये ! यह मेरे वश में नहीं हुए, क्योंकि यह प्रतापी हैं, तब वह फिर कहती है यदि यह तुम्हारे वश में नहीं हुए तो तुम्हें 'त्रिलोक विजयी पनकी शूरवीरता का अभिमान छोड़ देना चाहिए। तव कामदेव रति से पुनः कहता है कि इन्होंने मोहराजा को जीत लिया है, जो हमारा प्रभु है, हमतो उसके किङ्कर हैं । इस तरह रति और कामदेव के संवाद विषयभूत यह जिन तुम्हारा कल्याण करें। शठ कमठ विमुक्ताग्राव संघरतघात व्यथितमपिमनोन ध्यानतो यस्य नेतु : चल चलतुल्यं विश्वविश्वेकवोरः, स दिशतुशु भमीशः पाश्र्वनाथ जिनोवः || पद्य में बतलाया है कि दुष्ट कमठ के द्वारा मुक्त मेघ समूह से पीड़ित होते हुए 'जनका मन ध्यान से जरा भी विचलित नहीं हुआ वे मेरु के समान प्रचल र विश्व के अद्वितीयधीर, ईश पार्श्वनाथ जिन तुम्हें कल्याण प्रदान करें । इसीतरह 'कारणमाला' के उदाहरण स्वरूप दिया हुआ निम्न पद्य भी बड़ा ही रोचक प्रतीत होता है । जिसमें जितेन्द्रियता को विनय का कारण बतलाया गया है। और विनय से गुणोत्कर्ष, गुणोत्कर्ष से लोकानुरंजन श्रौर जनानुराग से सम्पदा की अभिवृद्धि होना सूचित किया है, वह पद्य इस प्रकार है: १. इति महाकवि श्री वाग्भद विरचितायामलङ्कारतिलकाभिधान स्वोपज्ञ काव्यानुशासन वृत्तौ प्रथमोऽध्ययः ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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