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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ नलोटकपुर में पहले राहड ने अपनी रुचि के अनुसार ऋषभदेव का विशाल मन्दिर बनवाया था। बाद में नेमिकुमार ने उसी जिनालय के प्रागे दक्षिण भाग में २२ वेदियां बनवाई थीं।' उससे राहड की प्रसिद्धि अधिक हो गई थी। मेवाड़ की जनता नेमिकुमार से बहत प्रभावित थी। इस जिनालय में रात्रि के समय स्त्री पुरुष इकट्ठे होकर स्तुतियां पढ़ते थे, और नारियां मिलकर सुन्दर गीत गाती थी। नगर बाग-बगीचों और तालाबों से शोभायमान था। नेमिकुमार की कीति भी कम नहीं थी। रचनाएं
महाकवि बाग्भट्ट की इस समय दो कृतियाँ उपलब्ध हैं छन्दोज्नुशासन और काव्यानुशासन । इनमें
मटा छन्दोनुशासन काव्यनुशासन से पूर्व रचा गया है, क्योंकि काव्यानशासन की स्वोपज्ञवृत्ति में स्वोपज्ञ छन्दोऽनुशासन का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उसमें छन्दों का कथन विस्तार से किया गया है। अतएव यहां पर नहीं कहा जाता।
जैन साहित्य में छन्दशास्त्र पर 'छन्दोऽनुशासन' स्वम्भूछन्द छन्दकोश और प्राकृत पिंगल प्रादि अनेक छन्दग्रन्थ लिखे गये हैं। उसमें प्रस्तुत छन्दोऽनुशासन सबसे भिन्न है यह संस्कृत भाषा का छन्द ग्रन्थ है और पाटन के श्वेताम्दरीरालादार में सहएन पर लिखा हा विद्यमान है । उसकी पत्रसंख्या ४२ और श्लोक संख्या ५४० के करीब है और स्वोपज्ञवत्ति से अलंकृत है। इस ग्रन्थ का प्रादि मंगलपद निम्न प्रकार है:
विभुं नाभेयमानम्य छन्दसामनुशासन् । श्रीमन्नेमिकुमारस्यात्मजोऽहं वच्मि वाग्भटः।।
यही मंगल पद्य काव्याऽनुशासन को स्वोपत्ति में छन्दसामनुशासनं, के स्थान पर 'काथ्यानुशासनम् दिया हुया है।
यह छन्दग्रन्थ पाँच अध्यायों में विभक्त है, संज्ञाध्याय १ समवृत्ताख्य २ अर्धसमवृत्ताख्य ३ मात्रासमक ४ और मात्रा छन्दक ५ । ग्रन्थ सामने न होने से इन छन्दों के लक्षणादि का कोई परिचय नहीं दिया जा सकता और न यही बताया जा सकता है कि ग्रन्थकार ने अपनी दूसरी किन-किन रचनामों का उल्लेख किया है।
इस ग्रन्थ में राहड और नेमिकुमार की कीति का खलागान किया गया है और राहड को पुरुषोत्तम तथा
१.निजभूजयुमोगाजित वित्त जात जनित नलोटकपूर प्रतिष्ठित त्रिभूवना भूत श्री नाभिसम्भवमिन सदन प्रारमाय निर्मा
ति द्वाविंशति देवगृहिका मण्डलस्य । (काव्यानु० पृ. १) २. अपं च सर्व प्रपंचः थीवाग्भट्टाभिध स्वोरज्ञछन्दोऽनुशासने प्रपंचित इति नात्रोच्यते । ३. यह छन्दोऽनुशासन जम्कीति के द्वारा रचा गया है । इसे उन्होंने मांडव्य, विगंल जनाव' सेतव, गूज्यपाद (देवनन्दी)
और जयदेव आदि विद्वानों के छन्द प्रन्यों को देखकर बनाया गया है। यह जयकीर्ति अमलकीति के शिष्य थे । संवत् ११९२ में योगसार की एक प्रति अमलकीति ने लिखवाई थी, इससे जयकीर्ति १२ वीं पाताब्दी के उत्तरार्ध और १३वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान जान पड़ते हैं। यह ग्रन्ध जैसलमेर के वेताम्बरीय ज्ञानभंण्डार में सुरक्षित है। (देखो गायकवाड संस्कृत सीरीज में प्रकाशित जैसलमेर भाण्डागारीय ग्रन्यानां सूची।) ४. यह अपभ्रंश और प्राकृत भाषा का महत्वपुर्ण मौलिक छन्द ग्रंथ है। इसका सम्पादन एच. डी. वेलंकर ने किया है।
(देखो,वम्बई यूनिवर्सि- तरल सन् १६३३ तथा रायलएसियाटिक सोसाइटी जनरल सन् ० ६३५), ५. रत्न शेखर सूरि द्वारा .... प्राकृत भाषा का छन्दकोश है । ६. पिंगला आर्य के प्राकृत पिगंल को छोड़कर, प्रस्तुत पिंगल ग्रन्थ अथवा छन्दोविद्या कविराजमल की कृति है। जिसे उन्होंने श्रीमालकुलोत्पन्न वणिक पति राजाभारमल्ल के लिये रचा था। इस अन्य में छन्दों का निर्देश करते हुए राजा भारमल के प्रताप यश और वंभव आदि का अच्छा परिचय दिया गया है। इन छन्द ग्रन्थों के अतिरिक्त छन्दशास्त्र,
वृत्तरलावर और श्रुतबोध नाम के छन्द ग्रन्थ और हैं जो प्रकाशित हो चुके हैं। u. See Pillan ciltlagi.c of Manucrints P. 117.