________________
४२४
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ जितेन्द्रियत्वं विनय स्थ कारणं, गुण प्रकर्षोविनयादयाप्तते
गुणप्रकर्षणजनोऽनुरज्यते, जनानुरागप्रभवाहि सम्पदः ।। इस ग्रन्थ की स्वोपज्ञवृत्ति में कवि ने अपनी एक कृति ऋषभदेवकाव्य का 'स्वोपज ऋषभदेव महाकाव्ये' वाक्य के साथ उल्लेख किया है और उसे 'महाकाव्य' बतलाया है, जिससे वह एक महत्वपूर्ण काव्य ग्रन्च जान पड़ता है, इतना ही नहीं किंतु उसका निम्न पद्य भी उद्धृत किया है:
यत्पत्पदन्त-मनिसेन-मनीवमुख्यः पूर्वः कतं स कविभिस्तव विधित्स : 1
हास्याय कस्यननु नास्ति तथापिसंतः, शृण्वंतुकंचन ममापि सुयुक्ति सूक्तम् । इन के सिवाय, कवि ने भण्य नाटक और अलंकारादि काव्य बनाये थे। परन्तु वे सब अभी तक अनुपलब्ध हैं, मालूम नहीं कि वे किस शास्त्र भण्डार की कालकोठरी में अपने जीवन की सिसनिया ले रहे होंगे।
कवि का सम्प्रदाय दिगम्बर था, क्योंकि उन्होंने दिनम की दूसरी शताब्दी के प्राचार्य समन्तभद्र के बृहत्स्व. यम्भ स्तोत्र के द्वितीय पद्य को 'पागम प्राप्तवचनं यथा' वाक्य के साथ उद्धत किया है:
प्रजापतियः प्रथमंजिजीविष प्राशासकृष्याविषकर्मस प्रजाः
प्रबद्धतत्त्वः पुनरद्ध तोक्यो ममत्वतो निवियदे विदांकरः ॥ बीरनन्दी 'चन्द्रप्रभ चरित का आदि मंगल पद्य भी उद्धृत किया है। और १० १६१ में सज्जन दुर्जन चिन्ता में वाग्भट के 'नेमि निर्वाण काव्य के प्रथम सर्ग का २० वा पद्य भी दिया है ।:
गुणप्रतीलिः सुजनां जनस्य, दोवेष्यवज्ञा खल जल्पितेष। अतो ध्रुवं नेह मम प्रबन्धे, प्रभूतदोषेप्यशोऽवकाशः ।।
समय विचार
कवि ने ग्रन्थ में रचना समय का कोई उल्लेख नहीं किया । कितु वीरनन्दी पौर वाग्भट के ग्रन्थों के पद्य उद्धत किये हैं। इससे कवि इन के बाद हुमा है। काव्यानुशासन के पृष्ठ १६ में उल्लिखित "उद्यान जल केलि मद्यपान वर्णन नेमिनिर्वाण राजीमती परित्यागादो" इस वाक्य के साथ नेमिनिर्वाण और राजीमती परित्याग नामके दो प्रन्यों का समुल्लेख किया है। उनमें से नेमिनिर्वाण के ८वेंसर्ग में जल क्रीड़ा और १०वें सर्ग में मधपान सुरत का वर्णन दिया हुआ है। हां, 'राजीमती परित्याग' नामका अन्य कोई दूसरा ही काम अन्य है जिसमें उक्त दोनों विषयों को देखने की प्रेरणा की गई है। यह काध्य ग्रन्थ सम्भवतः पं० प्राशाधर जी का राजमती विप्रलम्भ या परित्याग जान पड़ता है। क्योंकि विप्रलम्भ भौर परित्याग शब्द पर्यायवाची हैं। पण्डित आशाधर जी का समय विक्रम को १३वों शताब्दी है। कवि ने काव्यानुशासन में महाकवि दण्डी वामन और वाग्भटालंकार के कर्ता वाग्भट द्वारा माने गए, दहा काव्य गणों से कवि ने सिर्फ माधुर्य, पोज पोर प्रसाद ये तीन गुण ही माने है। और शेष गणों का उन्हीं में प्रतर्भाव किया है। वाग्भद्रालंकार के कर्ता का समय १२वीं शताब्दो है। इस सर्वे विवेचन से कवि वाग्भट का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी का उपान्त्य और १४वीं का पूर्वार्ध हो सकता है।
रविचन्द्र (माराधना समुच्चय के कर्ता) मूनि रविचन्द्र ने अपनी गुरु परम्परा संघ-गण-गच्छ और समय का कोई उल्लेख नहीं किया। इनकी एकमात्र कृति 'पाराधना समुच्चय, है जो डा० ए० एन० उपाध्ये. द्वारा सम्पादित होकर माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चुका है।
-
-
---
१. इति दण्डि वामनवाग्भटादिप्रणीता दशकाव्यगुणाः । वर्ष तु माधुर्याजप्रसाद लक्षणास्थीनेव गुणा मन्यामहे, शेषास्तेष्वेवान्तभवन्ति । तबधा-माधुर्ये. कान्तिः सौकुमार्य च, ओअसिश्लेषः समाधिरुदारता च । प्रसादेऽयं व्यक्तिः समता चान्तर्भवति ।
(काव्यानुशासन २, ३१)