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________________ ४५६ १५वी, १६वौं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि कविवर रइघू कविवर रइध संघाधिय देवराय के पौत्र और हरिसिंघ के पुत्र थे, जो विद्वानों को आनन्ददायक थे, और माता का नाम 'विजयसिरि' (विजयश्री) था जो रूपलावण्यादि गुणों से अलंकृत होते हुए भी शोल संयमादि सदगणों से विभूषित थी। कविवर की जाति पनावती पुरवाल थी और कविवर उक्त पद्मावती कूलरूपी कमलों को विकसित करने वाले दिवाकर (सूर्य) थे जैसाकि 'सम्मइजिनचरित' ग्रंथ को प्रशस्ति के निम्न वाक्यों से प्रकट है-- स देवराय संघाहिब गंवण, हरिसिंघु बुहमण कुल, प्राणंदणु। 'पोमावा कुल कमल-विवायर, हरिसिंघु बुहयण कुल, प्राणंवणु। जस्स घरिज रघु बह जायउ, वेष-सत्य-गुरु-पय-अणुरायउ॥' ___ कविवर ने अपने कुल का परिचय 'पोमावइकुल' पोमावइ 'पुरवाडवंस' जैसे वाक्यों द्वारा कराया है। जिससे वे पद्मावती पुरबाल नाम के कुल में समुत्पन्न हुए थे। जनसमाज में चौरासी उपजातियों के अस्तित्व का उन्जेस गलता है। उनमें कितीही पारियों का अस्तित्व बाज नहीं मिलता। किंतु इन चौरासी जातियों में ऐसी कितनी ही उपजातियां अथवा वंश हैं जो पहले कभी बहुत कुछ समूड और सम्पन्न रहे हैं। किंतु ग्राज वे उतने समुख एवं वैभवशाली नहीं दिखते और कितने ही वंश एवं जातियां प्राचीन समय में गौरवशाली रही है किंतु माज उक्त संख्या में उनका उल्लेख भी शामिल नहीं है। जैसे धर्कट यादि। इन चौरासी जातियों में पद्मावती पुरवाल भी एक उपजाति है, जो आगरा, मैनपुरी, एटा, ग्वालियर मादि स्थानों में प्राबाद है । इनकी जनसंख्या भी कई हजार पाई जाती है। वर्तमान में यह जाति बहुत कुछ पिछड़ी हुई है तो भी इसमें कई प्रतिष्ठित विद्वान हैं। वे आज भी समाज-सेवा के कार्य में लगे हुए हैं। यद्यपि इस जाति के विद्वान् अपना उदय ब्राह्मणों से बतलाते हैं और अपने को देवनन्दी (पूज्यपाद) का सन्तानीय भी प्रकट करते हैं, परन्तु इतिहास से उनकी यह कल्पना केवल कल्पित जान पड़ती है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि उपजातियों का इतिवृत्त अभीगंधकार में है। जो कुछ प्रकाश में प्रा पाया है, उसके प्राचार से उसका अस्तित्व विक्रम की दशमो शती से पूर्व का ज्ञात नहीं होता। हो सकता है कि उसके भी पूर्ववर्ती रही हों, परन्तु बिना किसी प्रामाणिक आधार के इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा राकता, पट्टावली वाला दूसरा कारण भी प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि पट्टावली में प्राचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) को पद्मावती-पुरवाल लिखा है, परन्तु प्राचीन ऐतिहासिक प्रमाणों से उनका पद्मावती-पुरवाल होना प्रमाणित नहीं होता, कारण कि देवनन्दी ब्राह्मण कुल में समुत्पन्न हुए थे। जाति और गोत्रों का अधिकांश विकास अथवा निर्माण गांव, नगर और देश आदि के नामों पर से हमा है। उदाहरण के लिए सांभर के पास-पास के बघेरा स्थान से बघेरवाल, पाली से पल्लोबाल, खण्डेला से खण्डेलवाल, अम्रोहा से अग्रवाल, जायस अथवा जैसा से जैसवाल और ओसा से मोसवाल जाति का निकास हा है। तथा चंदेरी के निवासी होने से चन्देरिया, चन्दवाड से चांदुबाड या चांदवाड और पद्मावती नगरी से पद्मावतिया मादिगोत्रों एवं मर का उदय हा है। इसी तरह अन्य कितनी ही जातियों के सम्बंध में प्राचीन लेखों, ताम्रपत्रों, सिक्कों, ग्रन्थप्रशस्तियों और ग्रन्थों मादि पर से उनके इतिवृत्त का पता लगाया जा सकता है। --- - - - - १. हरिसिंघहु पुत्तें गुणगण जुत्तं हंसिवि विजयसिरि पदणेण। -समत्त गुणनिधान जैन ग्रन्य प्र०, प्रस्ता. भा० पृ०६७ २. यह जाति जैन समाज में गौरवशालिनी रही है। इसमें अनेक प्रतिष्ठित श्रीसम्पन्न श्रावक पौर विद्वान हुए हैं जिनको कृतियां आज भी अपने अस्तित्व से भूतल को समलंकृत कर रही है। भविष्यवत कथा के कर्ता बुध धनपाल और धर्मगरीक्षा के कर्ता बुध हरिषेण ने भी अपने जन्म से 'धकंट बंश को पावन किया है । हरिषेण ने अपनी धर्मपरीक्षा वि० सं० १०४ में बनाकर समाप्त की है। घट वंश के अनुयायी दिगम्बर वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में रहे हैं।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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