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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-माग २ अन्त
समस्त सन्देहहरं मनोहरं प्रकृष्टपण्यप्रभवम जिनेश्वम् ।
कृतं पुरागे प्रथमे सुटिप्पण मुखाववोध निखिला दर्पणम् ।। इति श्रीप्रभाचन्द्र विरचितमाविपुराणहिप्पणकम पंचासश्लोक हीनं सहस्रद्वयपरिमाणं परिसमाप्ता ।। उत्तर पुराण टिप्पण का अन्तिम पुष्पिका वाक्य निम्न प्रकार है:
श्री जसिह देव राज्ये श्रीमद्धारानिवासिनः परापरपरमेष्ठि प्रणामोपा जितरमल पुण्य निराकृता खिल कलंकेन श्री प्रभाव पंडितेन महापुराण टिप्पणके शतश्यधिक सहस्रत्रय परिमाणं कृति मिति ।
पाटीदी मन्दिर जयपुर प्रति क्रियाकलाप टीका-श्री पंडित प्रभाचन्द्र के द्वारा रची गई है। जैसा कि ऐ० पन्ना लाल सरस्वति भवन बम्बई को हस्त लिखित प्रति की अन्तिम प्रशस्ति से स्पष्ट है :-- ।
वन्दे मोहनमो विनाशनपटुस्त्रलोक्य दीप प्रभुः। संसृति समन्वितस्य निखिल स्नेहस्य संशोषकः । सिद्वान्ताविसमस्तशास्त्रकिरणः श्री पदमन्दि प्रभुः ।
तछिष्यात्प्रकटार्थतां स्तुति पदं प्राप्त प्रभाचन्द्रतः॥ इस प्रशस्ति पद्य से स्पष्ट है कि क्रियाकलाप के टीकाकार पद्मनन्दि सैद्धान्तिक के शिष्य थे।
इनके अतिरिक्त समाधितंत्र टीका, रत्नकरण्ड टीका, पात्मानुशासन तिलक टीका, स्वयंभस्तोत्र टीका पंचास्तिकाय प्रदीप, प्रवचनसार टीका को प्रति टोडा राबसिंह के नेमिनाथ मन्दिर में सं० १६०५ की लिखी हुई मौजद है इसकी यह जाँच करना आवश्यक है यह टीका प्रवचन सरोज भास्कर से भिन्न है या वही है और समयसार वृत्ति की प्रति ६५ पत्रात्मक भट्टारकीय भंडार अजमेर में उपलब्ध है इन टीका ग्रन्थों में समाधितत्र टीका, रत्न करण्ड टीका, और स्वयंभूस्तोत्र टीका, तो इन्हीं प्रभाचन्द्र की मानी हो जाती है। किन्तु शेष टीकात्रों के सम्बन्ध में अन्वेषण कर यह निश्चय करना शेष है कि ये टीकाएँ भी उन्हीं प्रभाचन्द्र की है। या अन्य किसी प्रभाचन्द्र की हैं।
वीरसेन यह माथर संघ के प्राचार्य थे, जो सिद्धान्त शास्त्रों के पारगामी विद्वान थे । आचार्यों में श्रेष्ठ थे। और माथुर संघ के वतियों में वरिष्ठ थे। कषाय के विनाश करने में प्रवीण थे। जैसा कि धर्मपरीक्षा प्रशस्ति के निम्न पद्य से स्पष्ट है:
सिद्धान्त पाथोनिधि पारगामी श्री वीरसेनोऽअनिसूरिवर्यः।
श्री माथुराणां यमितां वरिष्ठः कषाय विध्वंसविधौ पटिष्टः॥ वीरसेनाचार्य से ५वीं पीढ़ी में अमितगति द्वितीय हए। इनका समय सं०१०५० से १०७३ है । प्रत्येक का काल २०-२० वर्ष माना जाय तो बीरसेन का समय अमितगति द्वितीय से १०० वर्ष पूर्व ठहरता है और बीरसेन के शिष्य देवसेन का समय दशवीं शताब्दी है। अत: वीरसेन का समय भी १०वीं शताब्दी होना चाहिये।
देवसेन प्रस्तुत देवसेन सिद्धान्त समुद्र के पारगामी विद्वान वीरसेन के शिष्य थे । जो उदयाचल रूप सूर्य के समान अंधकार की प्रवृत्ति को नष्ट करने वाले, लोक में ज्ञान के प्रकाशक, सत्पुरुषों के प्रिय, तथा धीरतासे जिन्होंने दोषों को नष्ट कर दिया है, ऐसे देवसेन नाम के आचार्य हए।
१ वस्ता शेष जान्त वृत्तिमनस्वी तस्मात्सूरिदेवसेनो जनिष्ट । लोकोद्योती पूर्व सैलादिवाकः शिष्टा भीष्टः स्थेयसोऽपास्तदोषः ।।
-धर्म परीक्षा प्र.