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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य दिन हैं। बारा न्याय दूस में विटहैं। जिनमें प्रमाण नय, निक्षेप पीर प्रवचन प्रवेशका प्रति पाद्य विषय का ऊहापोह के साथ विवेचन किया गया है। इन के अतिरिक्त तरसम्वन्धि अवान्तर अनेक विषयों को पूर्व उसर पक्ष के रूप में चर्चा की गई है। न्याय कुमुद की भाषा ललित और प्रवाह निर्वाध है। दानिक गेलो और भाषा सौष्ठव, सुखद है तथा साहित्य के मर्मज्ञ व्याख्याकार अनन्तवीर्य और विद्यानन्दी का अनुसरण करने का प्रयल किया गया है। इसने महान् टोका ग्रन्थ का निर्माण करने पर भी प्रभाचन्द्र ने निम्न पद्य में अपनी लघुला ही प्रकट की है। और लिखा है कि न मुझमें वैसा ज्ञान ही हैं और न सरस्वती ने हो कोई वर प्रदान किया है । तथा इस ग्रन्थ के निर्माण में किसी से वाचनिक सहायता भी नहीं मिल सकी है।
बोधो में न तथा विधोऽस्ति न सरस्वत्या प्रदत्तो वरः ।
साहायञ्च न कस्यचिद्वाचनतोऽप्यस्ति प्रबन्धोदये। प्रमेय कमलमार्तण्ड की रचना के बाद टीकाकार प्रभाचन्द्र के मानस में जो नवीन नवीन युक्तियां अवतरित हुई उनका इसमें निर्देश किया गया है। जहां द्विरुक्ति को संभावना हुई, वहां उनका निरूपण नहीं किया किन्तु प्रमेयकमलमार्तण्ड के अवलोकन करने का निर्देश कर दिया है। प्रभाचन्द्र ने अपने स्वतंत्र प्रवन्धों में बहतसी मौलिक बातें बतलाई हैं, जैसे वैभाषिक सम्मत प्रतीत्यसमुत्पाद का खंडन, प्रतिविम्ब विचार तम और छाया द्रव्यत्व आदि अनेक प्रकरणों के नाम उल्लेखनीय है। न्याय कुमुद की रचना शैलो प्रसन्न और मनोमग्धकर है। प्रभाचन्द्र ने न्याय कुमुद की रचना धारा के जयसिंह देव के राज्य में की है। (न्याय कु० प्रस्तावना)
ग्वाम्भोजभास्कर-श्रवणबेलगोल के शिला लेख नं० ४०(६४) में प्रभाचन्द्र के लिये शब्दाम्भोजभास्कर विशेषण दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि प्रमेय कमलमार्तण्ड और न्याय कुमुद जैसे प्रथित तकं ग्रन्यों के कर्ता प्रभाचन्द्र ही शब्दाम्भोजभास्कर नामक जनेन्द्र व्याकरण महान्यास के कर्ता हैं। यह न्यास जैनेन्द्र महावृत्ति के बहत बाद बनाया गया है।
नमः श्री वर्धमानाय महते देवनन्दिने ।
प्रभाचन्द्राय गुरवे तस्मै चाभवनन्दिने । इस पद्य में अभयनन्दि को नमस्कार किया गया है। शब्दाम्भोजभास्कर का पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है:
इति प्रभाचन विरचिते शबदाम्भोजभास्करे जैनेन्द्र व्याकरण महान्यासे तृतीयस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः।
क्योंकि इसमें महावृत्ति के शब्दों को प्रानुपुर्वी से लिया गया है। विशेष परिचय के लिये प्रमेय कमल मार्तण्ड की प्रस्तावना देखें।
गय कथा कोश---यह कथा प्रबन्ध संस्कृत गद्य में रचा गया है, जिसमें ८६ कथाएं हैं। उसके बाद समाप्ति सूचक पूष्पिका पायी जाती है। प्रभाचन्द्र ने कमाए बनाई हैं या और अधिक यह अभी निर्णय नहीं हमा। हो सकता है कि लिपि कर्ता से पल्ती में पुष्पिका वाक्य लिखा गया हो, और बाद में कुछ कथाएं और लिखकर पुष्पिका वाक्य लिखा गया हो। ग्रन्थ सामने न होने से उसके सम्बन्ध में विशेष कुछ कहना संभव नहीं।
महापुराणटिप्पण- प्रभाचन्द्र ने पुष्पदन्त के अपभ्रंश भाषा के महापुराण (यादि पुराण-उत्तर पुराण) पर एक टिप्पण लिखा है। यह टिप्पण धारा के राजा जयसिंह के राज्य काल में लिखा गया है। पुष्पदन्त ने अपना महापुराण सन् १६५ ई० में समाप्त किया था। प्रभाचन्द्र ने उसके बाद उस पर टिप्पण लिखा है। मादि पुराण टिप्पण में धारा और जयसिंह नरेश का कोई उल्लेख नहीं है। महापुराण के इस टिप्पण को श्लोक संख्या ३३०० बतलाई गई है। प्रादि पुराण की १९५०, और उसर पुराण को १३५० । आदि पुराण टिप्पण का मादि अन्त मंगल निम्न प्रकार है:
प्रावि मंगल-प्रणम्यवीर विषुधेन्द्र संस्तुतं निरस्तदोष वृषभं महोदयम् ।
पदार्थ संदिग्धजन प्रबोधकम्, महापुराणस्य करोमि टिप्पणम् ।।
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१ पुष्पदन्त ने महापुराण सिद्धार्थ संवत्सर ८८१ में महापुराण शुरू किया और ८८७ सन् ६६५ में समाप्त किया था।