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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
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यह देवसेन माथरसंघ के यतियों में अग्रणी थे। जिस प्रकार सर्व पदार्थों को प्रकाशित करता है और प्रदोषा (रात्रि) को नष्ट करता है, कमलों को विकसित करता है, उसी प्रकार आचार्य देवसेन वस्तु स्वरूप को प्रकाशित करने और प्रकृष्ट दोषों से रहित हुए भव्य रूप कमलों को प्रमुदित करते थे। जैसा कि निम्न पत्र से साष्ट है :
श्री वेवसेनोऽजनि माथुराणां गणी यतीनां विहित प्रमोदः ।
तत्त्वावभासी निहतप्रदोषः सरोरुहाणामिव तिग्मरश्मिः ।। इससे यह देवसेन माथुरसंघ के प्रभावशाली विद्वान थे । इनके शिष्य अमितगति प्रथम थे। जिन्होंने योगसार की रचना की है। इनका समय वि० को दशवीं शताब्दी है । क्योंकि इनसे ५वीं पीढ़ी में अमितगति द्वितीय हुए हैं, जिनका रचना काल सं० १०५० से १०७३ है। इसमें से चार पीढ़ी का ५० वर्ष समय कम करने से सं. १६३ पाता है । यही देवसेनका समय है।
नेमिषेण यह माथुरसंघ के विद्वान अमितमति प्रथम के शिष्य थे। समस्त शास्त्रों के जानकार और शिप्यों में अग्रणी थे, तथा माथुरसंघ के तिलक स्वरूप थे। जैसा कि सुभाषितरत्नसन्दोह को प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है :
तस्य शात समस्त शास्त्र समयः शिष्यः सतामग्रणीः ।
श्रीमन्माथुरसंघसाधुतिलकः श्रीनेमिषेणो भवतः ॥ उक्त नेमिषेणाचार्य माथुरसम्प्रदाय रूप आकाश में प्रकाश करने वाले चन्द्रमा के समान, तथा ग्रहन्त भाषित तत्वों में शंका के विनाशक और विद्वत्समूह रूप शिष्यों से पूजित थे । जैसा कि श्रावकाचार के निम्न पद्य से स्पष्ट है--
विद्वत्सम्हाचित चित्र शिष्यः श्री नेमिषेणोऽजनि तस्य शिष्यः।
श्री माधुरानक नभः शशांकः सदा विधताहत तत्त्व शंकः ।। पाराधना प्रशस्ति में भी इन्हें सर्व शास्त्ररूपी जलराशिके पारको प्राप्त होने वाले, लोकके, अंधकार के विनाशक और शीतरश्मि के समान जनप्रिय बतलाया है।
सर्वशास्त्रजलराशिपारगो नेमिषेण मुनि नायकस्ततः ।
सोऽजनिष्ट भखने तमोपहः शीतरश्मिरिख यो जन प्रियः॥ इनके शिष्य माधबसेन थे, जो अमितगति द्वितीय के गुरु थे । चूंकि अमितति द्वितीय का समय मं० १०५० सं १०७३ तक सुनिश्चत है। इनका समय सं १०११ के लगभग होना चाहिये।
माधवसेन माधवसेन नामके अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें प्रस्तुत माधवसेन माथुरसंघ के प्राचार्य नेमिपंण के शिष्य थे। मुनियों के स्वामी, माया के विनाशक और मदन को नष्ट करने वाले ब्रह्मचारी थे। और वृहस्पति के
१ एक माधवसेन भट्टारक मूलसंघ सेनगग और पोगरिगच्छ के चन्द्रप्रभ सिद्धान्त देव के शिष्य थे । इन्होंने सन् ११२४ ई० में पंच परमेष्ठी का स्मरण कर समाधि मरण द्वारा शरीर का परित्याग किया था। (जन लेस्व सं० भा० २ १० ४३०)
दूसरे माधवसेन प्रतापसेन के पट्टधर थे । इनका समय विक्रम की १३ वी १४ वीं पाताब्दी है ।
तीसरे माधवसेन वे हैं जिन्हें लोक्कियवसदि के लिये, देकररसने जम्बहल्लि को प्रदान किया था। यह लेख शब वर्ष १८४ (सन् १०६२ ई०) का है। चौथे माधवसेन सूरि वे हैं जिनका स्मरण पचप्रभमलपारिदेव ने निम्न पद्य द्वारा किया है :
.नमोऽस्तु ते संयमबोधमूर्तये, स्मरेभभस्थलभेदनाय वै । दिनेव पंकेरह विकासभानवे, विराजते माघबसेनसूरये ।।
-(नियमसार टी० १०६६)