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________________ -- - -- १५की, १६वीं, १५वीं और १८वी शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि --- रचनाएँ प्रथम ज्ञानभूषण वी निम्न रचनाएँ उपलब्ध हैं—पूजाष्टक टीका, तत्वज्ञानतरंगिणी स्वोपज्ञवाल सहित पादिनाथ फाग, नेमिनिर्वाण पंजिका, परमार्थदेश, सरस्वती वन । इन सब रचनायों में पूजाष्टक टीका सबसे पहली कृति जान पड़ती है। क्योंकि कवि ने उसे मनि अवस्था में वि० सं० १५२८ में डुगरपुर के आदिनाथ चैत्यालय में बनाकर समाप्त की थी। यह ज्ञानभूषण की स्वयं रचित पूजानों की स्वोपज्ञ टीका है। यह दस अधिकारों में विभाजित है। इसकी एक लिखित प्रति सम्भवनाथ मन्दिर उदयपुर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है। उसमें पूजाप्टक टीका का नाम ' विजनबल्लभा बतलाया है। सत्वज्ञानतर्रागिणी स्वोपज्ञटीका सहित यह ग्रन्थ १५ अध्यायों में विभक्त हैं। इसमें शुद्ध चिद्रपका अच्छा कथन दिया दमा। गन्ध अध्यान्म रग में सगबोर है । ग्रन्थ रोचक और ममूक्षयों के लिये उपयोगी है । इस "न्थ की रनना कधि उम समय की है जब भट्टारक पद से निःशल्य हो गये थे। उस समय ध्यान और अध्ययन दोही कार्य मृग रह गये। या नथ हिन्दी अर्थ के साथ प्रकाशित हो चत्रा है। पाठकों की जानकारी के लिये उसके कुछ पद्य हिन्दी गावा के साथ दिये जाते हैं स्वकीये शद्धचिन्द्रपे सचिर्या निश्चयेन तत् । सदर्शन मतं 'तज्ज्ञं : कमन्धन हतासनम् ॥८-१२ जिसकी मुद्ध चिद्र पः में रुचि होती है उसे तत्वज्ञानियों ने निश्चय मम्यान बनाया है बदगम्पन्दन कम ईंधन के जलाने के लिये अग्नि के समान है।। मैं शुभ चैतन्य स्वरूप ऐसा स्मरण करते हो शुभाशुभकर्म न जाने कहाँ चले जाते हैं। चतन अचेतन परिग्रह और रागादि विकार हो विलीन हो जाते हैं। यह मैं नहीं जानता। क्स यांति कर्माणि शुभा शुभानि क्व यांति संगाश्चिदचित्स्वरूपः । क्व यान्ति रागावय एवं शुद्ध चिद्र पकोहं स्मरणे न विमः ॥८-२ इम शुद्ध चिद्रप की प्राप्ति के लिए ज्ञानी जन निस्पट होकर सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर एकान्त पर्वता की गुफामों में निवास करते हैं। संग विमुच्य विजने वसंत गिरि गहरे । शुद्ध चिद सम्प्राप्त्वं ज्ञानिनोऽन्यत्र निःस्पृहा ॥५-३ है प्रात्मन् ! तू उस शुद्ध चिद्र प का स्मरण कर, जिसके स्मरण मात्र सं दशान ही कर्म नष्ट हो जाते है। तं चिद्र पं निजात्मानं स्मर शुद्ध प्रतिक्षणं । यस्थ स्मरण मात्रण सद्यः कर्मक्षयो भवेत् ॥१३-२ कवि ने तत्त्वज्ञान तरंगिणी की रचना सं० १५६० (सन् १५०३) में बनाकर समाप्त की है। पादिनाथ फाग यह ग्रन्थ ५६१ श्लोकों की संख्या को लिए हुए है, जिसमें २२६ पद्य संस्कृत भाषा के हैं पोर ६ः पद्य हिन्दी भाषा के हैं। इन सब को मिला कर ग्रन्ध की ५६१ श्लोक प्रमाण संध्या पाती है। समिव नबोन षटशहमितान (५६१) श्लोकान्विध्याउन्न । ___ शुद्धं ये सुधियः पठन्ति सवहं से पाठयन्त्वावरात् ॥" १.ति भट्टारक श्री भुवनकीति शिष्य मुनि ज्ञानभूषण विरचितायां स्वकृताप्टक दशक टीकाया बिज्जन वासभा मज्ञाया नीवरीपजिनालयाचन बर्णनीय नामा दशमोऽधिकारः ।।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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