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________________ १५वी, १६वौं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि Yc का मूल पट्टस्थान मैसूर राज्यान्तर्गत पनसोगे (हनसोगे) में था। इनके देवचन्द्र नाम के दूसरे भी शिष्य थे, जैसा कि जिनयज्ञ-फलोदय कि प्रशस्ति के निम्न वाक्य से प्रकट है-'देवचन्द्र मुनीन्द्रायों दयापाल: प्रसन्नधीः'। कल्याण कीति अपने समय के अच्छे विद्वान कवि और लेखक थे। और वादिरूपी पर्वतों के लिये वन्च के समान थे। इनकी अनेक रचनाएँ हैं जिनमें नौ रचनामों का नामोल्लेख इस प्रकार है:-१. जिनयज्ञफलोदय २. ज्ञानचन्द्राभ्युदय ३. कामनकथे ४. अनुप्रेक्ष ५. जिनस्तुति ६. तत्वभेदाष्टक ७. सिद्धराशि, ८. फणिकुमारचरित ६. और यशोधर चरित। प्रस्तुत कवि पाण्डव राजा के समय मौजद थे। यह पाण्डचराज वहो वीर पाण्डव भररस प्रौडेय हैं जिन्होंने कार्कल में बाहुबलीस्वामी को विशाल एवं मनोग्य मूति को स्थापित किया था और जिसको प्रतिष्ठा शक सं० १३५३ सन् १४३१-३२ ई० में हुई थी। १. जिन यज्ञफलोदय–में जिन पूजा और उनके फलोपदेश का वर्णन किया गया हैं इसमें नो लम्ब और दो हजार सातसौ पचास श्लोक हैं। यथा "द्विसहस्रमिदं प्रोक्तं शास्त्रं ग्रन्थं प्रमाणतः । पञ्चाशत्तरः सप्त शतश्लोफख संगतम् ।।" कवि ने इसकी रचना शक सं० १३५० में को थी, जैसाकि उसको प्रशस्ति के निम्न वाक्य से प्रकट है पञ्चाशस्त्रिशती युक्त सहस्रशकवत्सरे । _प्लवंगे श्रत पञ्चम्या ज्येष्ठे मासि प्रतिष्ठितम् ।।४२५ २. ज्ञानचन्ताम्युदय-में १०८ पद्य हैं। और उसकी रचना शक सं० १३६१ (सन् १४३६ ई.) में समाप्त हुई है। यह ग्रन्थ षट्पदी छन्द में है। इस कारण इसे ज्ञानचन्द्र षट् पदी भी कहते हैं । ज्ञानचन्द्र नाम के राजा ने तपश्चर्या द्वारा मुक्ति प्राप्त की थी। उसी का कथानक इस ग्रन्ध में दिया हना है । ३. कामनक थे-सांगत्य छन्द में रची गई है। इसमें जैन धर्मानुसार काम-कथा का वर्णन ४ सन्धियों और ३३१ पद्यों में किया गया है । ग्रंथ के प्रारम्भ में गुरु ललित कीति का स्मरण किया गया है। इस ग्रन्थ की रचना तुलुव देश के राजा भैरव सुत पाण्ड्य राय की प्रेरणा से की थी। ४. अनुप्रेक्षे-में ७४ पद्य है जो कुन्दकुन्दाचार्य की प्राकृत अनुप्रेक्षा का अनुवाद जान पड़ता है। ५. जिनस्तुति-६. तत्वभेदाष्टक-इनमें से जिन स्तुति में १७ और तत्त्वभेदाष्टक में ६ पद्य हैं। ७. सिद्ध राशि का परिचय ज्ञात नहीं हुमा। ५. फणि कुमार चरित-कन्नड़ भाषा में रचा गया है। पं० के भुजबली शास्त्री इसका कर्ता इन्हीं कल्याण कीति को मानते हैं । जो शक १३६४ (सन् १४४२) में समाप्त हुना है। यशोधर चरित्र-प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत के १-५० श्लोकों में रचा गया है । यह ग्रन्थ मंधर्व कवि के प्राकृत (अपभ्रश) यशोधर चरित को देख कर पाण्डयनगर के गोम्मट स्वामी चैत्यालय में शक सं० १३७३ (मन् १४५१) में समाप्त किया है। इसमें राजा यशोधर और चन्द्रमति का कथानक दिया हया है। इसके प्रशस्ति पद्य में मुनि ललितकीति का उल्लेख किया है : यो ललितकीतिमुनिमहदयगिरेरभवदागममयूख: कल्याणफोति मुनि रवि रखिल धरातलतत्त्वबोधन समर्थः ॥२२१ इस सब रचानयों के समय से ज्ञात होता है कि मुनि कल्याण कीति ईसा को १५वीं शताब्दी के विद्वान हैं। वे विक्रम सं० १४८८ से १५०८ के ग्रन्थकर्ता हैं। प्रमाचन्द्र यह काष्ठा संघीय भट्टारक हेमकीर्ति के शिष्य और धर्म चन्द्र के शिष्य थे। जो तर्क व्याकरमदि सकल १. देखो प्रशस्ति संग्रह, जैन सिद्धान्तभवन पारा पृ० २७ श्लोक ४११ से ४१३ ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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