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________________ सेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि ४०१ निधिवृद्धिकर' विशेषण दिया है, जिससे वे सिद्धान्त के विद्वान् टीकाकार जान पड़ते हैं। और मेघचन्द्र मूलसंघ देशीयगण पुस्तकगच्छ के विद्वान थे। उनके प्रभाचन्द्र 'शुभचन्द्र, बीरनन्दी और रामचन्द्र प्रादि शिष्य थे। मेषचन्द्र का स्वर्गवास शक सं० १०३७ (वि० सं० ११७२) में हुया है। इनके एक शिष्य शुभचन्द्र का स्वर्गवास शक स. १०६८ (वि० सं० १२०३) में हया था। और वीरनन्दी ने प्राचारसार की कनड़ी टीका शक सं०१०७६ (विक सं० १२१२) में बनाई थी। मुनि सोमदेव का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी है। मोर नागचन्द्र के शिष्य हरिचन्द्र का समय भी विक्रम की १३वीं शताब्दी है। कवि हरिदेव इनके पिता का नाम चंग देव और माता का नाम चित्रा या। इनके दो जेठे भाई थे किंकर और कृष्ण । उनमें किंकर महागुणवान, और कृष्ण स्वभावतः निपुण थे। उनके तीसरे पुत्र हरि हुए। इनसे दो कनिष्ठ भाई विजवर और राघव थे। जो जिनचरणों के भक्त और पापों का मान मर्दन करने वाले थे । इस कुटुम्ब के परिचय नागदेव का संस्कृत मदनपराजय से चलता है यः शुद्धसोमकूलपविकासनाको जातोजथना सरतामविचंगदेवः । तन्नन्वनो हरिरसत्कवितामसिंहः तस्माद. भिषग्जनपतिभ दिनागवः ।।२।। सज्जावुभौ सुभिषजाविहहेमरामो, रामाप्रियङ्कर इति प्रियदोऽथिनां यः । ताजश्चोकत्सितमहाम्बुधिपारमाप्तः, श्रीमल्लगिज्जिनपदाम्बुजमसभङ्गः ॥ तज्जौहं नागदेवाख्यः स्तोकज्ञानेन संयुक्तः, छन्दोऽलंकार काय्यानि नामिधानानि वेदम्यहम् ।। कथाप्राकृतबन्धेन हरिद वेन या कृता, वक्ष्ये संस्कृतबन्धेन भयानधर्मवद्धये ।।५।। अर्थात् पथ्वी पर शुद्ध सोमकूलरूपी कमल को विकसित करने के लिये सूर्यरूप याचकों के लिये कल्पवृक्ष चंगदेव हुए। उनके पुत्र हरि हुए, जो असत्कवि रूपि हस्तियों के सिंह थे। उनके पुत्र हुए वैद्यराज नागदेव । नागदेव के हेम और राम नाम के दो पुत्र हुए, जो दोनों ही अच्छे बैद्य थे। राम के पुत्र हुए प्रियंकर, जो याचकों को प्रिय थे। प्रियंकर के पुत्र हुए 'मल्लुमि, जो चिकित्सा महोदधि के पारगामी विद्वान तथा जिनेन्द्र के चरण-कमलों के मत्त. भ्रमर थे। उनका पुत्र हुआ मैं नागदेव नामक, जो अल्पज्ञानी हूँ। काव्य, अलंकार, और शब्द कोप के जान से विहीन हैं। हरिदेव ने जिस कथा को प्राकृत बन्ध में रचा था, उसे मैं धर्मवृद्धि के लिये संस्कृत में रचता हूं। __ कवि की एकमात्र कृति 'मयणपराजय चरिउ' है, जो एक रूपक काव्य है । इसमें दो संघियां हैं जिनमें से प्रथम सन्धि में ३७ और दूसरी सन्धि में ८१ कुल ११८ कडवक हैं । जिनमें मदन को जीतने का सुन्दर सरस वर्णन किया गया है। इसमें पद्धडिया, गाथा और दुवई छन्द के सिवाय वस्तु (रड्ढा) छन्द का भी प्रयोग किया गया है। कित इन छन्दों में कवि को वस्तु या रड्ढा छन्द ही प्रिय रहा जाना पड़ता है। इस छन्द के साथ ग्रन्थ में यथास्थान १. चंगएबहुराविजिणपयडु । तह चित्त महासइहि पतपुत्त किकरू महागुण । पुणु बीयउ कण्ड हुउ 'जेण लघु ससहाउरिणय पुण।। हरि तिज्जउ कइ जाणियह दियवरु राघववेद । ले लहुया जिएपमथुरणहि पावहमारए मलेह ॥२॥-मयण पराजयचरिउ २. प्राकृत पिंगत में रहका छन्द का लक्षण इस तरह किया है। जिसमें प्रथम चरण में १५ मात्राए', दितीय परण में १२ तृतीय परण में १५ चतुर्य चरण में ११ और चरण में १५ मात्राएं हो। इस तरह १५४१२४१५४ ११x १५ कुल मात्राओं के पश्चात् अन्त में एक दोहा होना चाहिए, तब प्रसिद्ध रहढा छन्द होता है जिसे वस्तु छन्दx भी कहा जाता है । (प्राकृत पिंगल १-१३३)
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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