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________________ ४३२ जैन धर्म का प्राचीन इनिाहस-भाग २ बालचन्द मलधारि मल संघ, देशीय गण कोण्ड कन्दान्वय पुस्तकगच्छ इंगलेश्वर बलिक त्रिभूवन कीति रावल के प्रधान शिष्य थे। इनके प्रिय गृहस्थशिष्य संगायके पुत्र वोम्मिसेट्टि तथा मेलब्बे से उत्पन्न मल्लि सेट्टि ने तेलंगेरे बसदि के प्रसन्न पाश्वदेव के लिये तम्मडियहल्लि में सुपारी के २००० पेड़ों के दो हिस्से बंशानु वंशतक जाने के लिये अलग निकाल गि। और डोपाकमोगाने मान देश पिल्ले को अर्पित कर दिये । चेल्लपिल्लेनेजो सबनगिरि मौर बालेन्दु-मल धारि देव का शिष्य था। अमरापुर के इस लेखका समय शक १२०० (सन् १२७८ ई. है। अतएव वालचन्द्र मलधारि का समय ईसा की १३वीं शताब्दी है। वादिराज (द्वितीय) यह वादिराज की शिष्य परम्परा के विद्वान थे। ४६५ नं के शिलालेख में, जो सवसं. ११२२ (वि. सं० १२५७ के लगभग का उत्कीर्ण किया हुआ है, लिखा है कि षट् दर्शन के प्रोता थीपाल देबके स्वर्गवास हो जाने पर उनके शिष्य वादिराज (द्वितीय) ने 'परवादिमल्ल-जिनालय' नाम का मन्दिर बनवाया था। और उसकी पूजन तथा मुनियों के प्राहार दान के लिकुछ भूमि का दान दिया। प्रस्तुत वादिराज गम नरेश राचमल्ल चतुथं या सत्य बाक्य के गुरु थे। इनका समय विक्रम की १३वीं शताब्दी है। (जैनलेख स. भा०१ पृ. ४०८) त्रिविक्रमदेव (प्राकृत शब्दानुशासन के कर्ता) यह ग्रहनन्दि विद्य मुनि के शिष्य थे। त्रिविक्रम का कुल वाणस था। आदित्यवर्माके पौत्र और मल्लिनाथ के पुत्र थे। इनके भाई का नाम भाम (देव) था जो वृत्त और विद्या का धाम (स्थान) था । यह दक्षिण देश के निवासी थे। इनकी एक मात्र कृति 'प्राकृत शब्दानुशासन' है । जो तीन अध्यायों में विभक्त है मौर स्वोपन वृत्ति से युक्त है। प्रत्येक अध्याय के चार-चार पाद हैं। इसमें हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में दिये हुए अपभ्रंश पद्यों को उद्धत किया है, और उनके पद्यों को उद्धृत कर उनका खण्डन भी किया है । इससे यह निश्चित है कि प्रस्तुत व्याकरण का रचना काल हेमचन्द्र के बाद, विक्रम की १३वीं शदी है, डा० ए० एन० उपाध्ये ने इनका समय १२३६ ई. बतलाया है। व्याकरण बहुत अच्छा है, इसका अध्ययन करने से प्राकृत भाषा का अच्छा परिज्ञान हो जाता है । डाक पी० एल० वैद्य ने इसका सम्पादन किया है, और यह ग्रंथ जीवराज ग्रंथमाला शोलापुर से सन् १९५४ में प्रकाशित हो चुका है। मारक प्रमाचन्द यह मूलसंघ के भट्टारक रत्न कीति के पट्टधर थे। रत्नकीति और प्रभाचन्द्र नाम के अनेक विद्वान प्राचार्य और भट्टारक हो गए हैं। उनमें यह भट्टरक प्रभाचन्द्र उन रत्नकोति के पद्धर थे जो भ० धर्मचन्द्र के प्रपट्ट पर अजमेर में प्रतिष्ठित हुए थे, जिन का समय पट्टावली में सं० १२९६ से १३१० बतलाया गया है। पट्टे श्री रत्नकीर्तरनुपमतपसः पूज्यपादीयशास्त्रव्याख्या विख्यातकीति गुणगणनिधिपः सत्क्रियाचारुबंधुः । १. श्रुतमतुं रहनन्दि विद्यमुनेः पदाम्बुज प्रमरः । श्रीधारणसकुल कमला मरोरादित्यवर्मणः पौत्रः ।। श्रीमल्लिनाथ पुत्रो लक्ष्मीगर्भामृताम्बुधिसुधांशुः । भामस्य इत्त विद्याधाम्नो भ्राता त्रिविक्रमः सुकविः ।।३
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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