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________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि सकलचन्द भट्टारक मलमंघ काण रगण तित्रिणी गरट के विद्वान थे। महादेव दण्डनायक के गुरु थे । मुनिनन्द्र के कि कलभषणप्रति विच विद्याभर के शिष्य थे। शक वर्ष १११६ (वि.सं १२१४ में महादेव दण्ड जिनालय बनवा कर उससान्तिनाथ भगवान की प्रतिष्ठाकर सकलचन्द्र भट्टारक के पाद प्रक्षालन पूर्वक हितगण तालाब के नीचे दण्ड से नापकर ३ मत्तल चावल की भुमि, दो कोल और एक दुकान का दान किया। अत: इनका समय वि० की १३वीं शताब्दी है। ___-जनलख सं. भा० : T०२४९ कलकोति यह माघर गंघ के प्राचार्य थे। नंबन १७३ फाल्गण मुदी १० मी को इनके भक्त श्रेष्ठी मनोरथ के पुत्र कुलचन्द्र ने मति की प्रतिष्ठा की। (संवत् १९३२ फाल्गुन मुदि १० माथुर संघे पडिताचार्य श्री सकलकीर्ति भक्त श्रेप्ट मनोरथ सुत कुलनन्द लक्ष्मी पति श्रेयमेकाग्नेियं ।। इसी संवत् में एक दरी मान को भी प्रतिष्ठा उनके भक्त साह हेन्याक के प्रथम पुत्र वोहण न कल्याणार्थ की थी। (सं० १२३२ फाल्गुन सुदि १० मायन्य पंमिनाचार्य श्री सकलकोति भक्तिन साह हेत्याकन प्रथम पत्र वील्हण सतेन श्रेयने करणये । (कारियों -- देख, माराट का इतिहास मल्विगुंद मादिराज इसका जन्म साकल्य कुल में हुया था। इसका पिता का नाम नाम और माता का नाम महादेवी था। नरिवगंद ग्राम में इसका जन्म हुआ था। गुण वर्म का पुष्पदन पुराण ई. सन् १९.६ के लगभग बना है। उसकी एक प्रति के अन्त में दो पद्य दिए है। पद्यों को रचना देखने से ज्ञात होता है कि यह एक अच्छा कवि था। पुष्पदन्त पुराण की प्रतिलिपि करने के कारण यह उससे कुछ समय बाद सन् १३०० के लगभग हुया होगा। इसकी अन्य काई रचना प्राप्त नहीं हुई। शुभचन्द योगी इनके संघ गण गच्छादि का कोई परिचय' उपलब्ध नहीं है । संभवतः यह मूलसंघ के विद्वान थे, तपश्चरण द्वारा आत्म-शोधन में तत्पर थे। गारिमल्लाण- रागादिया को-जीतने के लिये मल्ल थे कपाय और इन्द्रिय जय द्वारा योग की साधना में उन्होंने चार चांद लगा दियं ये 1 उम समय वे अत्यन्त प्रसिद्ध थे। जाहिणी माथिका ने. तपस्या द्वारा शरीर की क्षीणता के साथ कपायों को कृशकिया था। उसने अपने ज्ञानाबरणो कर्मके यार्थ भनन्द्र के ज्ञानार्णव की प्रति लिखवा कर संवत् १२८४ में उन प्रसिद्ध शुभचन्द्र योगा को प्रदान की थी। इससे इन शुभचन्द्र का समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी है । -देखो ज्ञानार्णव की पाटन प्रनि की लिपि प्रशस्ति । ___मल्लिषेण पंडित-- यह बिल संघ स्थिन नन्दिसंघ अरुनालान्दय के विद्वान श्रीपाल विद्य देव के प्रशिष्य और वासुपूज्य देव के शिष्य महल परित को यक वर्ष १०८० (वि० सं० १२३५) में पारिसण्ण की मृत्यु के बाद उसके पूष शान्तियण दण्डनायक न एक बसदि बनवाई और उसके लिये भूमिदान और दीपक के लिये तेल की चक्की दान में दो। तथा मल्ल गोण्ड और ममस्त प्रजा ने गांव के घाट की मामदनी, तया धान से चावल निकालते समय अनाज का हिस्सा भी उन मल्लिपंण पण्डिन को दिया। मल्लिषण पंडित का समय विक्रम को १३वीं शताब्दी है।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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