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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ४३० क गुरु रामचन्द्रदेव नाम के मुनि थे, जो माधवचन्द्र के शिष्य थे । रामचन्द्रदेव जगदेक मल्ल के दरबार के कटकांपा ध्याय में यह जन्म के गुरु नागबर्स के भी गुरु थे । जन्न कति सूक्तिमुधाय ग्रन्थ के कर्ता मल्लिकार्जुन का माला और मणिदर्पण के कर्ता केशिराज का मामा था। यह बोलकुल नरसिंहदेव राजा के यहां सभी कवि सेनानायक और मन्त्री भी रहा है। यह बड़ा भारी इसने किया दुर्ग में अनन्तनाथ का मन्दिर और द्वार समुद्र के विजयी पार्श्वनाथ के मंदिर का महाद्वार बनवाया था । इसकी यशोधरा चरित्र, अनन्तनाथ पुराण और शिवाब स्मरतन्त्र नाम की तीन रचनाएँ मिलती हैं। इसका समय सन् १२०६ ई० कर्नाटक कवि रचिल में दिया हुआ है। श्री कोति यह मुनि कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा के नन्दि संघ के विद्वान थे। जो चित्रकूट से नेमिनाथ तीर्थंकर की यात्रा के लिये गिरनार जाते हुए गुजरात की राजधानी अणहिलपुर मं श्रावे। वहां उन्हें राजा ने मण्डलाचार्य का विरुद (पद) प्रदान किया और उनका सत्कार किया। इनका समय विक्रम की १३वी शताब्दी है । (देखो वेरावल का शिलालेख' जैन लेख सं० भा० ४ पृ० २२० ) महाबल कवि महाबल कवि भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण था । इसके पिता का नाम रायिदेव और माता का नाम राजिवक्का था। गुरुका नाम माधवचन्द्र था जो विद्य की उपाधि से उपलक्षित थे। क्योंकि नेमिनाथ पुराण के अश्वास के अन्त में 'माधवचन्द्र वैदिद्य चक्रवर्ती श्रीपादपद्मप्रसादशादित सकलकलाकलाप" इत्यादि वाक्य लिख कर अपना नाम लिखा है । सहजकविमलगेह (१) माणिक्यदीप और विश्वविद्याविरंचि, कवि इन तीन नामों से प्रसिद्ध था । इसकी एकमात्र कृति नेमिनाथ पुराण उपलब्ध है। जिसमें २२ ग्राश्वास हैं। उसमें प्रधानता से हरिवंश और कुरुवंश का वर्णन है। यह कनड़ी भाषा का चम्पू ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भ में नेमिनाथ तीर्थकर, सिद्ध, सरस्वती आदि की स्तुति करके भूतबलि से लेकर पुष्पसेन पर्यन्त प्राचार्यों का स्तवन किया गया है। इसके पश्चात् अपने आश्रयदाता के नायक और अपना परिचय देकर कविने ग्रन्थ प्रारम्भ किया है। केतनायक परमवीर और स्वयं कवि था । उसी के अनुरोध से इस ग्रन्थ की रचना हुई है। ग्रंथ की रचना सुन्दर श्रीर प्रौढ है । कवि ने इसे शक संवत् ११७६ (ई० सन् १२५४ ) में समाप्त किया है । लघु समन्तभद्र लघु समन्तभद्र - इनकी गुरु परम्परा और गण-गच्छादि का कोई परिचय नहीं मिलता। इन्होंने प्राचार्य विद्यानन्दकी अष्टसहस्त्री पर 'विषम पदतात्पयंवृत्ति' नामक टिप्पण लिखा है, जो भ्रष्टसहस्रों के विषम पदों का अर्थ व्यक्त करता है । इनका समय विक्रमको १३वीं शताब्दी बतलाया जाता है। इनके टिप्पण की प्राचीन प्रति पाटन के ज्ञान भण्डार में उपलब्ध है । अन्तिम - देवं स्वामिममलं विद्यानंद प्रणम्य निजभक्त्या । विवृणोभ्यष्टसहस्रो विषमपदं घुसमन्तभद्रोऽहम् ॥ free कृत दुर्दष्टि सहस्र दृष्टी कृत परदृष्टि सहस्रो । स्पष्टी कुरुतादिष्टसहस्री मरमाविष्टपमष्ट सहस्रो ? सं० १५७१ वर्ष पूर्ण ग्रन्थ मुख्तारसा० कं नोट से कुलचन्द्र उपाध्याय - सं० १२२७ वैशाख वदि ७ शुक्रवार के दिन वर्द्धमानपुर के शांतिनाथ चैत्य में सा भलन सा० गोशल ठा० ब्रह्मदेव ठा० कणदेवादि ने कुटुम्ब सहित अम्बिकादेवी की मूर्ति बनवाई और उसकी प्रतिष्ठा कुलचन्द्र उपाध्याय ने की। इससे कुलचन्द्र का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी है ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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