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________________ वीर शासन १६ बैठे हए देव-देवांगनामों, मनुष्य, स्त्रियों, तिथंचों तथा नाना देश सम्बन्धी संज्ञी जीवों की अक्षर अनक्षर रूप अठारह महा भाषा और सात सौ लधुभाषानों में परिणत हुया था। तालु, प्रोष्ठ, दन्त, और कण्ठ के हलन-चलन रूप व्यापार से रहित, तथा न्यूनाधिकता से रहित मधुर, मनोहर और विशद रूप भाषा के अतिशयों से युक्त एक ही समय में भव्य जीवों को ग्रानन्दकारक उपदेश हुमा । उससे समस्त जीवों का संशय दूर हो गया, क्योंकि भगवान महावीर रागद्वेप और भय से रहित थे। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पवासी देवों के द्वारा तथा नारायण, बलभद्र, विद्याधर, चक्रवर्ती, मनुप्य, तियंच और अन्य ऋषि महर्षियों के द्वारा जिनके चरण पूजित हैं ऐसे भगवान महावीर अर्थागम के कर्ता हुए और गणधर इन्द्रभूति ग्रन्थ कर्ता हुए। महाबीर ने अपनी देशना में बताया कि घणा पाप से करनी चाहिए, पापी जीव से नहीं । यदि उस पर घणा की गई तो फिर उसका उत्थान होना कठिन है। उस पर तो दयाभाव रखकर उसकी भूल सुझाकर प्रेम भाव से उसके उत्थान का प्रयास करना ही पसार है। वीरशासन में शूद्रों. और स्त्रियों को अपनी योग्यतानुसार प्रात्मसाधन का अधिकार मिला। महावीर ने अपने संघ में सबसे पहले स्त्रियों को दीक्षित किया और चन्दना उन सब आयिकामों की गणिनी बनी। महावीर के शासन की महत्ता का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय के बड़े-बड़े राजा गण, युवराज, मंत्री, सेठ, साहूकार आदि सभी ने अपने-अपने वंभव का जीर्ण तृण के समान परित्याग किया और महावीर के संघ में दोक्षित हाए, तथा ऋषिगिरि पर कठोर नपश्चर्या द्वारा आत्म-साधना कर मुक्ति के पात्र बने। उनमें राजा उद्दायन प्रादि का नाम खासतौर से उल्लेखनीय है। राजा उद्दायन की रानी प्रभावती, चेटक की पुत्री ज्येष्ठा, और राजा उदयन की माता मृगावती तथा अन्य नारियां भी दीक्षा लेकर प्रात्म-हित को साधिका हुई। उस समय महावीर के संघ में चौदह हजार मुनि, चन्दनादि बत्तीस हजार प्रायिकाएं, एक लाख श्रावक,और तीन लाख श्राविकाएं, असंख्यात देव-देवियाँ, तथा संख्यात तियंत्रों को अवस्थिति थी। महावीर का यह शासन सर्वोदयतीर्थ के रूप में लोक में प्रसिद्ध हया। यह शासन संसार के समस्त प्राणियों को संसार-समुद्र से तारने के लिए घाट अथवा मार्ग स्वरूप है, उसका प्राधय लेकर संसार के सभी जीव प्रात्म-विकास कर सकते हैं। यह सबके उदय, अभ्युदय, उत्कर्ष एवं उन्नति में अथवा प्रात्मा के पूर्ण विकास में सहायक है। यह शासनतीर्थ संसार के सभी प्राणियों की उन्नति का द्योतक है। महाबीर के इस शासनतीर्थ में एकान्त के किसी कदाग्रह को स्थान नहीं है। इसमें सभी एकान्त के विषय प्रवाह को पचाने की शक्ति है-क्षमता है। यह शासन स्याद्वाद के समुन्नत सिद्धान्त से अलंकृत है, इसमें समता और उदारता का रस भरा हुया है। वस्तुतत्त्व में एकान्त की कल्पना स्व-पर के वैर का कारण है, उससे न अपना ही हित होता है और न दूसरे का ही हो सकता है। वह तो सर्वथा एकान्त के प्राग्रह में अनुरक्त हुमा वस्तु तत्त्व से दूर रहता है। महावीर का यह शासन अहिंसा अथवा दया से ओत-प्रोत है। इसके प्राचार-व्यवहार में दूसरों को दुःस्त्रोत्पादन की अभिलाषा रूप अमंत्री भावना का प्रवेश भी नहीं है। पांच इन्द्रियों के दमन के लिए इसमें संयम का बिधान किया गया है, इसमें प्रेम और वात्सल्य की शिक्षा दी गई है, यह मानवता का सच्चा हामी है। अपने बिपक्षियों के प्रति जिसमें रागद्वेष की तरंग नहीं उठती है, जो सहिष्ण तथा क्षमाशोल है ऐसा यह वीरशासन ही सर्वोदय तीर्थ है। उसी में विश्व-बन्धुत्व की लोककल्याणकारी भावना अन्तनिहित है। भगवान महावीर के सिद्धांत गम्भीर और समुदार हैं, वे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और मध्यस्थ की भावना से प्रोत-प्रोत हैं। उनसे मानव जीवन के विकास का खास सम्बन्ध है। उनके नाम हैं अहिंसा, अनेकान्त या स्याद्वाद, स्वतन्त्रता और अपरिग्रह। ये सभी सिद्धान्त बड़े ही मूल्यवान हैं क्योंकि उनका मूल अहिंसा है। इस तरह भगवान महावीर ने ३० वर्ष के लगभग अर्थात २१ वर्ष ५ महीने और २० दिन के केवली जीवन में काशी, कोशल, वत्स, चंपा, पांचाल, मगध, राजगृह, वैशाली, अंग, बंग, कलिंग, ताम्रलिप्ति, सौराष्ट्र, मिथिला, १. देवो, तिलाय पणनी १६० मे १४ तक गाथाए ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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