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________________ प्रस्तावना धी, परन्तु इस महान कार्य में सामग्री की विरलता, साधनों की कमी और अपनी अल्पज्ञता बाधक हो रही थी, इस लिये उससे विराम ले लेना पड़ता था।। मेरे पास जो थोड़े बहुत नोट्स थे, उनके आधार पर अनेक लेख लिखे गये जो समय पर अनेकान्तादि पत्रों में प्रकाशित होते रहे हैं। जिनसे विद्वान प्रायः परिचित ही हैं। जिन्होंने मेरे नोट रूप लेखों का अवलोकन किया है, वे उन्हें बहुत उपयोगी प्रतीत हुए और उन्होंने उन्हें प्रकाशित कराने की प्रेरणा दी। मैंने अपने नोटों को अनुसन्धान प्रिय मुनि धी विद्यानन्द जी को दिखलाये थे, उन्होंने देखकर कहा था कि इन्हें पुस्तक का रूप देकर प्रकाशित कर देना चाहिये । मेरी भी इच्छा प्रकाशित करने की थी ही, परन्तु अशुभोदय से मैं बीमार पड़ गया, उससे जैसे तसे बचा तो शारीरिक कमजोरी ने लिखने में बाधा उपस्थित कर दी । अस्तु, भगवान महावीर के २५००वं निर्वाण महोत्सव की चर्चा ने मुझे प्रेरित किया कि तु इस समय इस कार्य को पूरा कर दे। डा० दरबारी लाल जी की विशेष प्रेरणा रही इस कार्य को पूरा करने को। अन्य मित्रों को भी यही राय थी। प्रतः मैंने लिखने का संकल्प कर लिया। एक दिन पं. बलभद्र जी ने कहा कि पाप अपनी सामग्री को तैयार करो, प्रकाशन की चिन्ता न करो, मैं उसकी जिम्मेदारी लेता हूं। इस सम्बन्ध में मेरी प्राचार्य देश भूपण जी से चर्चा हो गई है। प्रतः पाप निश्चिन्त रहें और उसे पूरा कर दें। मुझे इस कार्य के लिये अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करना पड़ा, और पुरातत्त्व विभाग की लाइब्रेरी से अनेक बार जाकर लाभ उठाया। दूसरों की सहायता से अंग्रेजी लेखों की जानकारी प्राप्त की, इसके लिये मैं उनका आभारी हूँ। तदनुसार मेंने इस ग्रन्थ को पूरा करने का प्रयत्न किया, दिन रात परिथम किया तब किसी तरह यह ग्रन्थ पूरा हो सका है। प्रस्तावना संक्षिप्त रूप में लिखी है । कागज की समस्या के कारण कुछ परिशिष्ट छोड दिये पडले ग्रन्थ का पूरा मैटर तो लिखा नहीं गया था किन्तु कुछ मैटर प्रेस में देने के बाद उसे लिखता गया और देता गया। इससे इसमें मोर कछ प्राचार्यों के समय प्रादि के परिचय में कमी रह सकती है। परन्तु पाठकों के सामने लगभग सात सौ प्राचार्यों, विद्वानों, भट्टारकों और संस्कृत अपभ्रंश के कवियों का परिचय संक्षेप में उनकी रचनादि के साथ दिया गया है। मेरी प्रल्पज्ञता वश उसमें कमी रह जाना स्वाभाविक है। अतः विद्वान उसे सुधार लें, और मुझे उसकी सचना दें। श्रीमान् डा. ए. एन. उपाध्ये पं० कैलाश चन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री, डा० भागचन्द जी नागपुर, पं० बालचन्द जी. शास्त्री पं० बलभद्र जी और पं० रतनलाल जो केकड़ी प्रादि विद्वानों को सलाह मुझे मिलती रही है। इसके लिए मैं उनका आभारी हूं। प्राचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने इस ग्रन्थ के प्रकाशन में जो सौजन्य पूर्ण सहयोग दिया है इसके लिये उनका विशेष आभारी है । और आशा करता हूं कि भविष्य में उनका सहयोग मुझे मिलता रहेगा। भारतीय इतिहास के विशेषज्ञ विद्वान डा० दशरथ शर्मा ने अस्वस्थ होते भी मेरे निवेदन पर ग्रन्थ का प्राक्कथन बोलकर प्रपती सपत्री शान्ताकुमारी से लिपि कराया है। उनकी इस महती कृपा के लिये मैं उनका बहत आभारी। परमानन्द जैन शास्त्री
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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