________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
आचार्य. अकलकदेव ने अपने तत्त्वार्थ वार्तिक पृ० ५७ में शब्द प्रादुर्भाव अर्थ में इति शब्द के प्रयोग की चर्चा के प्रसङ्ग में 'इति श्रीदत्तम्' का उल्लेख किया है। इससे ज्ञात होता है कि ये कोई शब्द शास्त्र निष्णात प्राचार्य थे, और उनका समय पूज्यपाद (देवनन्दि) से पूर्ववर्ती है।
११४
जिनसेनाचार्य ने आदि पुराण में उनका स्मरण करते हुए उन्हें तपः श्रीदीप्त मूर्ति और वादिरूपी गजों का प्रभेदक सिंह बतलाया है। इससे वे बड़े दार्शनिक और किसी दार्शनिक ग्रन्थ के कर्ता रहे हैं ।"
आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक में उन्हें सठवादियों का विजेता कहा है और उनके 'जल्प निर्णय' नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है। जैसा कि उनके निम्न पद्य से प्रकट है । हिप्रकारं जगी जल्पं तत्त्वप्रातिभगोचरम् । त्रिषष्ठेर्यादिनां जेता श्रीवत्तो जल्पनिर्णये ॥४५ - स्वा० इलो० वा० पृ० २८०
जल्प निर्णय ग्रन्थ जय-पराजय की व्यवस्था का निर्णायक जान पड़ता है। अकलंक देव के सिद्धि विनिश्चय के जल्पसिद्धि प्रकरण आदि में संभवतः उसका उपयोग किया गया हो ।
अक्षपाद गौतम के 'न्याय सूत्र' में जिन सोलह पदार्थों के तत्वज्ञान से मोक्ष माना गया है, उनमें वाद, जल्प और वितण्डा भी है । वादी को प्रतिवादी के मध्य होने वाले शास्त्रार्थ को वाद कहते हैं। जल्प और वित्तडा भी उसी के प्रकार हैं। आचार्य श्रीदत्त ने उसमें से जल्प का निर्णय करने के लिए जल्प निर्णय ग्रन्थ रचा होगा। चूंकि श्रीदत्त ने त्रेसठ बादियों को जीता था, इस कारण वे दाद शाखा के निष्णात पंडित थे । वे बड़े भारी तपस्वी और दर्शन शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे।
अभयनन्दि की महावृत्ति से सूचित होता है कि श्रीदत्त अत्यन्त प्रसिद्ध वैयाकरण थे जो लोक में प्रमाण माना जाता है। 'इति श्रीदत्तम्' यह प्रयोग 'इति पाणिनि' के सदृश लोकप्रसिद्ध था । इसी प्रकार - तच्छ्री दत्तम्' श्रहो श्रीदत्त' प्रादिप्रयोग भी श्रीदत्त की लोकप्रियता और प्रामाणिकता को अभिव्यक्त करते हैं सूत्र | ३ | ३|७६ पर 'तेन योक्तम् के उदाहरण में अभयनन्दी ने श्रीदत्त विरचित सूत्र ग्रन्थ को श्रीदत्तीयम्' कहा है। इससे स्पष्ट है कि श्रीदत्त का बनाया कोई ग्रन्थ श्रवश्य था ? | बहुत संभव है कि प्राचार्य जिनसेन और देवनन्दी द्वारा उल्लिखित श्रीदत्त एक ही हो और यह भी हो सकता है कि भिन्न हों। आदि पुराणकार ने चूँकि श्रीदत्त को तपः श्री दीप्त मूर्ति और वादिरूपगज गणों का प्रभेदक सिंह बतलाया है। इससे श्रीदत्त दार्शनिक विद्वान जान पड़ते हैं ।
यशोभद्र
ये प्रखर तार्किक विद्वान् थे। उनके सभा में पहुंचते ही वादियों का गर्व खर्व हो जाता था । आचार्य देवनन्दी ने भी अपने जैनेन्द्र व्याकरण में 'क्ववृषिजां यशोभद्रस्य ११४ | ३४' सूत्र में यशोभद्र का उल्लेख किया है। इनकी किसी भी कृति का उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया । देवनन्दी द्वारा जैनेन्द्र व्याकरण में उल्लेखित और जिनसेन द्वारा स्मृत यशोभद्र दोनों एक ही हैं, तो इनका समय ईसा की ५वी तथा वि० की छठी शताब्दी या उससे कुछ पूर्ववर्ती जान पड़ता है ।
१. श्रीदत्ताय नमस्तस्मं तपः श्रीदीप्तमूर्तये । कण्ठीरवामितं येन प्रवादीभप्रभेदने ॥ ४५.
२. विदुष्वणीषु सत्सु यस्य नामापि कीर्तितम् ।
निखर्वयति तद्गर्वं यतोभद्रः स पातु नः ।। आदि पु० १,४६
: