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________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य देवनंदि ( पूज्यपाद ) भारतीय जैन परम्परा में जो लब्धप्रतिष्ठ ग्रन्थकार हुए हैं, उनमें आचार्यं पूज्यपाद ( देवनन्दि ) का नाम खासतौर से उल्लेखनीय है। इन्हें विद्वत्ता और प्रतिभा का समान रूप से वरदान प्राप्त था। जैन परम्परा में स्वामी समन्तभद्र और सन्मति के कर्ता सिद्धसेन के बाद पूज्यपाद या देवनन्द को ही महत्ता प्राप्त है। आपकी अमर कृतियों का प्रभाव दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराम्रों में समान रूप से दिखाई देता है। इस कारण उत्तरवर्ती विद्वान इतिहासज्ञों और साहित्यकारों ने इनकी महत्ता और विद्वत्ता को स्वीकार किया है और उनके चरणों में श्रद्धा सुमन समर्पित किये हैं । आचार्य देवनन्दि अपने समय के प्रसिद्ध तपस्वी मुनिपुंगव थे । वे साहित्य जगत के प्रकाशमान सूर्य ये जिनके आलोक से समस्त वाङ्मय आलोकित रहेगा। इनका दीक्षा नाम देवनन्दि था। बुद्धि की प्रखरता के कारण जिनेन्द्र बुद्धि कहलाये, और देवों द्वारा उनके चरण युगल पूजे गए थे, इस कारण वे लोक में पूज्यपाद नाम से ख्यात थे। जैसा कि श्रवणबेलगोल के शिलालेख ( नं० ४० ) के निम्न पद्य से स्पष्ट है :--- यो वेवनन्दि प्रथिमाभिधानो बुद्ध्या महत्या से जिनेन्द्र बुद्धिः । श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यस्पूजितं पावयुगं यदीयम् ॥ नन्दि संघ की पट्टावली में भी देवनन्दि का दूसरा नाम पूज्यपाद बतलाया है। ये व्याकरण, काव्य सिद्धान्त, वैद्यक, और छन्द आदि विविध विषयों के मर्मज्ञ विद्वान थे। जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता के नाम से ही इनकी प्रसिद्धि है । ये मूलसंघान्तर्गत नन्दिसंघ के प्रधान प्राचार्य थे। वादिराज ने भी उनका स्मरण किया है' । आदि पुराण के कर्ता जिनसेन इनकी स्तुति करते हुए कहते हैं। "कवीनां तीर्थकृद्देवः किं तरां तत्र वर्ण्यते । विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थं यस्य वचोमयम् || " - जो कवियों में तीर्थंकर के समान थे और जिनका वचन रूपी तीर्थ विद्वानों के वचन मल को धोने वाला है। उन देवनन्दि आचार्य की स्तुति करने में कौन समर्थ है। देवनन्दि ने जिस तरह अपनी कृतियों द्वारा मोक्षमार्ग का प्रकाश किया है, उसी प्रकार उन्होंने शब्द शास्त्र पर भी अपनी रचनाएं लोक में भेंट की हैं, और शरीर शास्त्र जैसे लौकिक विषय पर भी अपनी रचना प्रदान की हैं । इसी से श्राचार्य शुभचन्द्र भी ज्ञानार्णव में उनके गुणों का उद्भावन करते हुए कहते है अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाश्चित्तसम्भवम् । कलमङ्गिनां सोज्यं देवनन्दी नमस्यते ॥ १-१५ । - जिनकी शास्त्र पद्धति प्राणियों के शरीर, वचन और चित्त के सभी प्रकार के मैल को दूर करने में समर्थ है, उन देवनन्दी को मैं प्रणाम करता हूँ । श्राचार्य गुणनन्दि ने जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रों का आश्रय लेकर जैनेन्द्र प्रक्रिया की रचना की है वे उनका गुणगान करते हुए कहते हैं १. महिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणा । शब्दाच्च न मिति साधुत्वं प्रतिलम्भितः ॥ पार्श्वनाथ चरित
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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