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नमः श्री पूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम् । देवा तदन्यत्र यन्नात्रास्ति न तरक्वचित् ॥
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जिन्होंने लक्षण शास्त्र की रचना की, मैं उन पूज्यपाद आचार्य को प्रणाम करता हूँ । इसीसे उनके लक्षण शास्त्र की महत्ता स्पष्ट है कि जो इसमें है वही अन्यत्र है और जो इसमें नहीं है वह अन्यत्र भी नहीं हैं। इनके सिवाय उत्तरवर्ती धनंजय, वादिराज, और पद्मप्रभ आदि अनेक विद्वानों ने उनका स्तवन कर उनकी गुण परम्परा को जीवित रक्खा है । इससे पूज्यपाद की महत्ता का सहज हो भान हो जाता है ।
इनके पूज्यपाद और जिनेन्द्र बुद्धि इन नामों को सार्थकता व्यक्त करने वाले शिला वाक्यों को देखिये
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
श्री पूज्यपादधृत धर्मराज्यस्ततः सुराधीश्वर पूज्यपाद: ।
यदी दुष्य गुणानिदानों वदन्ति शास्त्राणि तदुद्धृतानि ||
धृत विश्व बुद्धिरयमयोगिभिः कृत्कृत्यभावमनुविबुच्चकैः । जिनवद् बभूव यवनङ्गचापहृत्स जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधुवर्णितः ।।
ये दोनों श्लोक शक सं० १३५५ में उत्कीर्ण शिलालेख के हैं जिनमें बतलाया गया है कि आचार्य पूज्यपाद ने धर्मराज का उद्धार किया था। इससे आपके चरण इन्द्रों द्वारा पूजे गए थे। इसी कारण श्राप पूज्यपाद नाम से सम्बोधित किये जाने लगे । आपके विद्या विशिष्ट गुणों को आज भी आपके द्वारा उद्धार पाये हुए रनं हुएशास्त्र बतला रहे हैं | आप जिनेन्द्र के समान विश्व वृद्धि के धारक - समस्त शास्त्र विषयों में पारंगत थे, कृतकृत्य थे और कामदेव को जीतने वाले थे। इसीलिये योगी जन उन्हें 'जिनेन्द्र बुद्धि' नाम से सम्बोधित करते थे ।
आप नन्दि संघ के प्रधान आचार्य थे । महान दार्शनिक, अद्वितीय वैयाकरण अपूर्व वैद्य, धुरंधर कवि बहुत बड़े तपस्वी, सातिशय योगी और पूज्य महात्मा थे ।
जीवन-परिचय- आप कर्नाटक देश के निवासी और ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। पूज्यपाद चरित ओर राजाबली कथे नामक ग्रंथ में ग्रापके पिता का नाम माधव भट्ट और माता का नाम श्रीदेवी दिया है। श्रापका जन्म कोले नाम के ग्राम में हुआ था ।
जीवन घटना- आपके जीवन को अनेक घटनाएँ है - ( १ ) विदेहगमन ( २ ) घोर तपश्चरणादि के कारण प्रांखों की ज्योति का नष्ट हो जाना तथा शान्ताष्टक के निर्माण और एकाग्रता पूर्वक उसका पाठ करने से उसकी पुनः सम्प्राप्ति । (३) देवताओं द्वारा चरणों का पूजा जाना, (४) श्रौषधि ऋद्धि की उपलब्धि ( ५ ) पाद स्पृष्ट जल के प्रभाव से लोहे का सुवर्ण में परिणत हो जाना । इस सबके विचार का यहाँ अवसर नहीं है । यह विशेष अनुसन्धान के साथ योग की शक्ति की विशेषता और महत्ता से सम्बन्धित है । साथ में अडोल श्रद्धा भी उसमें कारण है ।
आपकी निम्न रचनाएँ हैं - तत्त्वार्थ वृत्ति ( सर्वार्थ सिद्धि) समाधितंत्र, इष्टोपदेश, देश भक्ति, जैनेन्द्र व्याकरण, वैद्यक शास्त्र, छन्द ग्रंथ, शान्त्यष्टक, सारसंग्रह और जैनाभिषेक ।
तत्वार्थ वृत्ति - उपलब्ध जैन साहित्य में गृद्धपिच्छाचार्य के तत्वार्थ सूत्र पर लिखी गई यह प्रथम टीका है । पूज्यपाद ने प्रत्येक अध्याय के अन्त में समाप्ति सूचक जो पुष्पिका दो है उसमें इसका नाम सर्वार्थ सिद्धि व्रतइसे वृत्ति ग्रन्थ रूप से स्वीकार किया है। जैसा कि टीका प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है :
लाते
हुए
१. शक संवत् १३५५ के निम्न शिला वाक्य में श्रीषधऋद्धि, और विदेह के जिन दर्शन से शरीर की पवित्रता तथा उनके पादधीत जल के स्पर्श के प्रभाव से लोहे के सुवर्ण होने का उल्लेख किया गया है :
श्री पूज्य मुनिरप्रतिमर्थाद्धः जोयाद्विदेह जिनदर्शन पूतगात्रः । गत्पादधीत जलसंस्पर्श प्रभावात्काला किल तथा कनकीचकार ।। १७
२. इति सर्वार्थ सिद्धिसंज्ञकायां तत्त्वार्थवृत्तौ प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।
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