SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ गुणदेव सूरि ये शास्त्र वेदी थे। बड़े तपस्वी और कष्ट सहिष्णु थे । इन्होंने कलवप्प पर्वत के शिखर पर समाधिमरण पूर्वक प्राराधनाओं का माराधन कर वेह त्याग किया था। इनका समय अनुमानतः लगभग शक स० ६२२ सन् (-जैन लेख सं० भा० १ ले. १६० पृ० ३०८) गुण कोतिइन्होंने चन्द्रगिरि पर देहोत्सर्ग किया था। यह शिलालेख शक सं० ६२२ सन् ७०० ई० का है। जन लेख सं भा० १ ले० ३०११०५) पृ. १३ तेल मोलि देवर (तोलामोलित्तेरव) तेल मोलि देवर (तोला मोलि तेरव)- ये तमिल भाषा के कवि थे। इन्होंने 'चूड़ामणि' नाम का एक तमिल जैन ग्रन्थ राजा सेकत (६५०ई०) के राज्य काल में उनके पिता राजा मार वर्मन अवेतीचलमन की स्मति में बनाया था। यह एक लघु काव्य ग्रन्थ है, इसकी रचना शैली 'जीवक चिन्तामणि' के ढग की है। तमिलनाड में पुरातन समय से भावी बातों की सूचना देने वाले ज्योतिषयों की एक जाति रही है, जिसे 'नादन' कहते हैं । इसमें भविष्यवक्ता का प्रभाव, बघू द्वारा वर का चुनाव । युद्ध में वीरों के प्राचरण, बहुविवाह की प्रथा आदि का वर्णन है। इसकी कथा भू-लोक और स्वर्ग लोक दोनों से सम्बन्ध रखती है। प्रभापति राजा की दो पत्नियां थीं, दोनों से उसके दो पुत्र हुए । एक का नाम विजयंत, जो गौर वर्ण था। दूसरे का नाम तिविट्टन था, जो कृष्ण वर्ण था। दोनों बालक अत्यन्त सुन्दर थे। एक दिन भविष्यवक्ता ने आकर कहा कि तिवट्टन का विवाह स्वर्ग लोक की एक अप्सरा से होगा । उसी समय अप्सरात्रों की रानी को भी अपनी कन्या के विवाह के सम्बन्ध में ऐसा ही स्वप्न हुा । अन्त में दोनों का विवाह सम्पन्न हो गया। इसमें तिविट्टन की कथा पौर अप्सरा की कन्या के साथ विवाह आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। और कथा के अन्त में राजा का राज्य परित्याग कर सन्यासी होने का उन्लेख है। साथ में जैन धर्म के सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। कवि का समय भी ६५० ईस्वी है। चन्द्रनन्दि चन्द्रनन्दि:-शिष्य कुमारनन्दि का उल्लेख श्री पुरुष के दान-पत्र में पाया जाता है, जो शक सं०६७८ सन् ७७६ (वि० सं०८३३) का उत्कीर्ण किया हुआ है। और जो श्रीपुर के जिनालय को दिया गया था। इसमें चन्द्रनन्दि का समय ईसा की 5वीं शताब्दी का मध्यकाल सुनिश्चित है। जयवेब पंडिन जयदेव पंडित-मूलसंघाम्बय देवगण शाखा के रामदेवाचार्य के शिष्य थे। इनके शिष्य विजयदेव पंडिताचार्य को शंख वस्ति के धबल जिनालय के लिए शक सं०६५६ (वि० सं० ७६१) में विजय संवत्सर द्वितीय में माघ पूर्णिमा को कुछ भूमि पश्चिमी चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीय ने दी थी। जैन लेख सं० भा०२ लेख नं०११५ विजयकोति-मुनि यापनीय नन्दिसंघ पुंनागवृक्ष मूलगण के विद्वानों की परम्परा में कूविलाचार्य के शिष्य थे। इनके शिष्य
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy