SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य अर्ककीति को शक सं. ७३५ (सन् ११३) में जेठ महीने के शक्ल पक्ष की दशमी चन्द्रवार के दिन शिलाग्राम के जिनेन्द्र भवन को जाल मंगल नाम का गांव सक्त अर्ककीति को दान में दिया गया था । अतः विजयकीर्ति का समय ईसा की ८वीं शताब्दी है। (जैन लेख सं० भा०२ पृ० १३७) विमलचंद्राचार्य मूलसंघ के मन्दिसंघान्वय में एरेगित्त नामक गण में और पुलिकल गच्छ में चन्द्रनन्दि गुरु हए। इनके शिष्य मूनि कुमारनन्दि थे, जो विद्वानों में अग्रणी थे। इन कुमारनन्दि के शिष्य जिनवाणी द्वारा अपनी कोर्ति को अर्जन करने वाले कीर्तिनन्द्याचार्य हुए। कोतिनन्धाचार्य के प्रिय शिष्य बिमल चन्द्राचार्य हए। जो शिष्यजनों के मिथ्याज्ञानान्धकार के विनाश करने के लिए सूर्य के समान थे। महर्षि विमलचन्द्र के धर्मोपदेश से निगुन्द्र युवराज जिनका पहला लाम 'दुण्डु' था और जो बाण कुलके नाशक थे। इनके पुत्र पृथिवी निर्गुन्द्रराज हए । इनका पहला नाम परभगूल था इनकी पत्नी का नाम कुन्दाच्चि था। जो सगर कुलतिलक मरुवर्मा की पुत्री थी, मोर इनकी माता पल्लवाधिराज की प्रिय पुत्री थी जो मरुवर्मा की पत्नी थी। कुन्दाच्चि ने श्रीपुर की उत्तर दिशा में लोकतिलक नाम का जिनमन्दिर बनवाया था। उसकी मरमत नई वृद्धि, देवपूजा और दान धर्म मादि की प्रवृत्ति के लिये पथिवी निर्गुन्द्रराज के कहने से महाराजाधिराज परमेश्वर थी जसहितदेव ने निगुन्द्र देश में आने वाले पोन्नल्लि ग्राम का दान सब करों और बाधाओं से मुक्त करके दिया। लेख में इस गांव की सीमा दी हुई है। चूंकि यह लेख शक सं०६८ सन् ७७६ ई० में उत्कीर्ण किया गया था। अतः विमल चन्द्राचार्य का समय ७७६ ईस्वी है। (जन लेख संग्रह भा०२१० १०६) इस लेख में विमल चन्द्राचार्य की गुरु परम्परा का उल्लेख दिया हुपा है । जिनके नाम ऊपर दिये हए हैं। कीसिनन्दि-यह विमल चन्द्राचार्य के गुरु थे। इनका समय उक्त लेखानुसार सन् ७५६ होना चाहिए। विशेषवादि यह अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे। इसी से जिनसेन और वादिराज ने उनका स्मरण किया है। पुन्नाटसंघी जिनसेन ने हरिवंशपुराण में उनका स्मरण निम्न रूप में किया है: योऽशेषोक्ति विशेषेषु विशेषः पद्यगद्ययोः। विशेषवाषिता तस्य विशेषत्रयवादिनः॥३७ जो गद्य पद्य सम्बन्धी समस्त विशिष्ट उक्तियों के विषय में विशेष—तिलकरूप हैं, तथा जो विशेषत्रय (ग्रंथ विशेष) का निरूपण करने वाले हैं। ऐसे विशेषवादी कवि का विशेष वादीपना सर्वत्र प्रसिद्ध है। शाकटायन में अपने एक सूत्र में कहा है कि–'उप विशेषवादिनं कवयः' । (१३१०४) सारे कवि विशेष बादि से नीचे हैं। प्राचार्यवादिराज ने भी पार्श्वनाथचरित में उनके 'विशेषाभ्युदय' काव्य की प्रशंसा की है १ जो गद्य पदा मय महाकाव्य के रूप में प्रसिद्ध होगा । शाकटायन यापनीय संघ के विद्वान थे प्रेमीजी ने विशेषवादी को यापनीय लिखा है 1 इनका समय शक सं० ७०५ (वी० सं०८४०) सन् ७८३से पूर्ववर्ती है। संभवतः विशेषवादी पाठवीं शताब्दी के विद्वान हों। १. विशेष वादिगीमुम्फश्रवणासक्तबुद्धयः । अक्लेशादधि गच्छन्ति विशेषाभ्युदयं बुधाः ।। -दादिराज पार्श्वनाथ चरित
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy