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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
चंद्रसेन
यह पंच स्तूपान्वय के विद्वान मुनि थे । यह वीरसेन के दादा गुरु और भार्यनन्दि के गुरु थे। इनका समय ईसा की बीं शताब्दी का उत्तरार्ध है ।
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श्रार्यनंदि
यह पंच स्तूपान्वय के विद्वान थे और वीरसेन के दीक्षा गुरु थे। और चन्द्रसेन के शिष्य थे । १ इनका समय भी ईसा की वीं शताब्दी होना चाहिए ।
एलाचार्य
एलाचार्य किस अन्वय या गण- गच्छ के विद्वान श्राचार्य थे, यह कुछ ज्ञात नहीं होता। सिद्धान्त शास्त्रों के विशेष ज्ञाता विद्वान थे, मौर महान तपस्वी थे । और चित्रकूटपुर (चित्तौड़) के निवासी थे । इन्हीं से वीरसेन ने सकल सिद्धान्त प्रत्थों का अध्ययन किया था। इसी कारण एलाचार्य वीरसेन के विद्या गुरु थे । वीरसेन ने इनसे पट् खण्डा गम और कसा पाहुड का परिज्ञान कर धवला सौर जय धवला टीकाक्षों का निर्माण किया। वीरसेनाचार्य ने धवला टीका प्रशस्ति में एलाचार्य का निम्न शब्दों में उल्लेख किया है
:-―
जस्स पसाएण मए सिद्धंत मिदं हि श्रहिलयं ।
महुसो एलाइरियो पसियउ वर वीरसेणस्स ॥ १ ॥
वीरसेनाचार्य ने अपनी धवलाटीका शक सं० ७३८ सन् ८११ में बनाकर समाप्त की । श्रतः इन एलाचार्य का समय सन् ७७५ से ८०० के मध्य होना चाहिए।
कुमारनन्दी
ये अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे। आचार्य विद्यानन्द ने प्रमाण परीक्षा में इनका उल्लेख किया है । तत्वार्थं श्लोक वार्तिक पृ० २८० में कुमारनन्दि के वादन्याय का उल्लेख किया है :कुमारनन्दिनचाहुर्वादिन्याय विचक्षणाः ।
पत्र परीक्षा के पृष्ठ ३ में 'कुमारनन्दिभट्टारके रपिस्ववादन्याये निगदितत्वात्" लिखकर निम्न कारि का उद्धृत की हैं
" प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगेषु
पुनर्ययः । प्रतिज्ञा प्रोच्यते : तयोदाहरणादिकम् ॥१ न चैवं साधनस्यैक लक्षणत्वं विरुध्यते । हेतुलक्षणतापायादन्यांशस्य तथोदितम् ॥२
१. अज्जज्जदि सिम्सेराज्जुब कम्मरस चंदसे रास्स । तह सुवेण पंचस्हृष्यं भागणा मुशिरा || घवला प्रशस्ति २. काले गते कित्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी । श्रीमालाचार्या अभूव सिद्धान्ततत्त्वतः ।। १७७ der समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः । उपरितम निबन्धनाद्यधिकारातष्ट च लिलेख ||१७८
इन्द्रनन्दि श्रुतावता