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पाँचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
यह दिवाकर यति के शिष्य थे। पपचरित के कर्ता रविषेण भी इन्हीं की परम्परा में हएरविषेण ने पद्यचरित की रचना वीर नि० संवत १२०३ सन् ६४७ में की है मतः इन्द्र गुरु का समय ईसाकी ७वीं सदीका पूर्वाध होना चाहिये।
देवसेन इस नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें प्रथम देवसेन के हैं, जिनका उल्लेख शक सं० ६२२ सन ११ .वि० सं०७५७) के चन्द्रगिरि पर्वत के एक शिलालेख में पाया जाता है। महामनि देबसेन व्रतपाल कर स्वर्गवासी हुए।
... (जैन लेख सं० भा० श्लेस नं. ३२ (११३)
बलदेव गुरु मह कित्तर में वेल्लाद के धर्मसेन मुरु के शिष्य थे। इन्होंने सन्यासव्रत का पालन कर शरीर का परित्याग किया था, यह लेख लगभग शक सं०६२२ सन् ७०० का है। मत: इनका समय सातवीं शताब्दीका अन्तिम चरण
(जैन लेख सं० भा० १ लेख नं०७ (२४) पृ० ४)
उपसेन गुष यह मलनूर के निगुरु के शिष्य थे। इन्होंने एक महीने का सन्यास व्रत लेकर समताभाव से शरीर का परित्याग किया था। लेख का समय शक सं० ६२२ सन् ७०० है। अत: इनका समय ईसा की सातवीं शताब्दी का अन्तिम चरण है।
(बैन लेख संग्रह मा० १. पृ० ४)
पुनतेन भुनि ये प्रगलि के भांति गुरु के शिष्य गुणसेन ने वृताचरण कर स्वर्गवासी हुए। यह लेख शक सं०६२२ सन् ७०० ईस्वी का है।
(जेन लेख संग्र० मा १ पृ० ४)
नागसेनगुरु यह ऋषभसेन गुरु के शिष्य थे। इन्होंने संन्यास---विधि से शरीर का परित्याग कर देवसोक प्राप्त किया। लेख का समय लगभग शक सं०६२२ सन् ७००है।
{जैन लेस सं.भा.१ पृ. ६)
सिंहलन्तिगुरु यह वेट्ट ने गुरु के शिष्य थे। इन्होंने भी सन्यास विधि से शरीर का परित्याग किया था। यह लेख भी सक सं०६२२ सन ७०० का उल्कीर्ण किया. सुधा है। पत: सिंहनन्दि गुरु,ईसा की सातवीं शताब्दी के विद्वान है।
(जैन लेख सं० भ.१ पृ०.७)
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