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________________ ३२२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ निश्चय रत्नत्रय) की भावना का प्रेमी था। ये तीनों ही विवेको जन समकालीन और उस प्राथम स्थान में बैठकर तत्त्वचर्चा में रस लेने वाले थे। उपरोक्त घटनाक्रम धाराधिपति राजा भोज के राज्यकाल में घटित हुप्रा है। भोजदेव का राज्यकाल सं० १०७० से १११० तक रहा है। द्रव्यसंग्रह और उसकी वृत्ति उसके राज्यकाल में रची गई है। मूल द्रव्य संग्रह ५८ गाथात्मक है। उसमें जीव अजोव, धर्म, अधर्म प्राकाश और काल इन छ: द्रव्यों का समूह निर्दिष्ट है। इस कृति का निर्माण प्राचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय प्राभूत से अनुप्राणित है उसी का दोहन रूप सार उसमें संक्षिप्त रूप में अंकित है। वत्तिकार ने मल ग्रन्थ के भावों का उदघाटन करते हए जो विशेष कथन दिया है और उसे ग्रन्थान्तरों के प्रमाणों के उद्धरणों से द्वारा पुष्ट किया है । टीका में अध्यात्म को जोरदार पुट अंकित है। उससे टीका केवल पठनीय ही नहीं किन्तु मननीय भी हो गई है । और स्वाध्याय प्रेमियों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। वत्ति में सोमराज श्रेष्ठी के दो प्रश्नों का उत्तर नामोल्लेख के साथ दिया गया है। यदि टीकाकार के समक्ष सोमराज श्रेष्ठी न होते तो उनका नाम लिये बिना हो प्रश्नों का उत्तर दिया जाता। चं कि वे उस समय विद्यमान थे, इसी से उनका नाम लेकर शंका समाधान किया गया है। पाठकों की जानकारी के लिये उसका एक नमूना नीचे दिया जाता है : सोमराज श्रेष्ठी प्रश्न करता है कि हे भगवन् ! केवलज्ञान के अनन्त वे भाग प्रमाण प्राकाश द्रव्य है और उस आकाश के अनन्तवें भाग में सबके बीच में लोक है, वह लोक काल की दृष्टि से प्रादि अन्त रहित है, वह किसी का बनाया हया नहीं है। और न कभी किसी ने नष्ट किया है, किसी ने उसे न धारण किया है, और न कोई उसका रक्षक ही है। लोक असंख्यात प्रदेशी है। उस असंख्यात प्रदेशो लोक में अनन्त जीव और उनसे अनन्तगुणे पुद्गल परमाणु, लोकाकाश प्रमाण कालाण, धर्म तथा अधर्म द्रव्य कैसे रहते हैं ? इस शंका का समाधान करते हुए ब्रह्म देव ने कहा है कि जिस तरह एक दोपक के प्रकाश में अनेक दीपकों का प्रकाश समा जाता है, अथवा एक गूढ रस भरे हुए शीशे के वर्तन में बहुत सा सुवर्ण समा जाता है । अथवा भस्म से भरे हुए घट में सुई और ऊंटनी का दूध समा जाता है। उसी तरह विशिष्ट अवगाहन शक्ति के कारण असंख्यात प्रदेश बाले लोक में जीव पूदगलादिक समा जाते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं पाता। यह प्रश्नोत्तर उनके साक्षात्कारित्व का संसूचक है ही।। ब्रह्मदेव की वृत्ति के कारण द्रव्य संग्रह की महत्ता बढ़ गई, उन्होंने उसकी विशद व्याख्या द्वारा चार चांद लगा दिये। प्रतः द्रव्यसंग्रह की यह टीका महत्व पूर्ण है। परमात्म प्रकाश टीका-परमात्म प्रकाश की ब्रह्मदेव की यह टीका जहां दोहों का सामान्य अर्थ प्रकट करती है, वहां वह दोहों का केवल अर्थ ही प्रकट नहीं करती बल्कि उनके अन्त: रहस्य का भी उद्भावन करती है। ब्रह्मदेव ने योगीन्द्रदेव की अध्यात्मिक कृति का निश्चय की दृष्टि से कथन किया है। किन्तु परमात्म प्रकाश की यह टीका द्रव्यसंग्रह की टीका के समान कठिन नहीं है। टीकाकार सरल शब्दों में उसका रोचक वर्णन करते हैं, और उसे ग्नन्थान्तरों के उदाहरणों से पुष्ट भी करते है। यह सच है कि यदि परमात्म प्रकाश पर ब्रह्मदेव की यह वृत्ति न होती तो वह इतना प्रसिद्ध नहीं हो सकता था। ब्रह्मदेव की यह टीका उसको विशेष ख्याति का कारण है । टीका के अन्त में टीकाकार ने लिखा है कि इस टीका का अध्ययन कर भव्य जीवों को विचार करना चाहिये कि मैं शुद्ध ज्ञानानन्द स्वभाव निर्विकल्प हूं, उदासीन हूं, निजानन्द निरंजन शुद्धात्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र रूप निश्चय रत्नत्रयमयी निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न वीतराग सहजानन्दरूप आत्मानुभूति मात्र स्वसं वेदन ज्ञान से गम्य । अन्य उपायों से नहीं। और निर्विकल्प निरंजन ज्ञान द्वारा हो मेरो प्राप्ति है, राग, द्वेष, मोह क्रोध मान, माया, लोभ, पंचेन्द्रियों के विषय, द्रव्य कर्म, नो कर्म, भाव कर्म, ख्याति लाभ पूजा, देखे सुने और अनुभव किये भोगों की वांछा रूप निदानादि शल्यत्रय के प्रपंचोंसे रहित हूं तीन लोक तीन काल में मन वचन काय, कृत, कारित अनुमोदनाकर शुद्ध निश्चय से मैं ऐसा मात्माराम हूं। यह भावना मुमुक्षु जीवों के लिये बहुत उपयोगी है। इसका निरन्तर मनन करना आवश्यक है।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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