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________________ ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य रचनाकाल ब्रह्मदेव ने अपनी टीकाओं में उनका रचना काल नहीं दिया, और न अपनी गुरुपरम्परा का ही उल्लेख किया है। इससे टीकायों के रचना काल के निर्णय करने में कठिनाई हो रही है।। द्रव्यसंग्रह की सबसे पुरातन प्रतिलिपि सं० १४१६ की लिखी हई जयपुर के ठोलियों के मन्दिर के शास्त्रभंडार में उपलब्ध है, जो योगिनीपुर दिल्ली में फीरोजशाह तुगलक के राज्य काल में अग्नवाल वंशी भरपाल ने लिख. बाई थी। इससे इतना तो स्पष्ट है कि उक्त टीका सं० १४१६ से बाद को नहीं हैं किन्तु पूर्ववर्ती है। क्योंकि इसका निर्माण धारा नगरी के राजा भोज के राज्यकाल में हुआ है। राजा भोज का राज्य काल सं० १०७० से १११. तक रहा है। सं० १०७६ और १०७६ के उसके दो दान पत्र भी मिले हैं। इससे द्रव्य संग्रह की टीका विक्रम की ११ वीं शताब्दी के उ.. और १: पीके भाा में रनी गई है। ही निष्कर्ष टीका में उद्धत ग्रन्थान्तरों के अवनरणों से भी स्पष्ट होता है। दोनों टीकाओं में अमृतचन्द्र, रामसिंह अमितगति प्रथम चामुण्डराय, डड्ढा और प्रभाचन्द्र ग्रादि के ग्रंथों के अवतरण मिलते हैं, जो विक्रम की १० वीं और ग्यारहवीं शताब्दी के विद्वान् है। इससे भी ब्रह्मदेव की टीकामों का वहीं समय निश्चित होता है, जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। अतः ब्रह्मदेव का समय ११वीं शताब्दी का उपान्त्य और १२ वों का प्रारम्भिक भाग है। त्रिभुवनचन्द्र मूलसंघ नन्दिसंघ बलात्कार गण के विद्वान् थे गुरु परम्परा में वर्धमान, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, गुणकीति, बिमलचन्द्र, गुणचन्द्र, अभय नन्दि, सकलचन्द्र, गण्डविमुक्त और त्रिभुवनचन्द्र के नाम दिये हैं। धारवाड़ जिले के अणिगेरे और गावरवाड नामों से प्राप्त दो विस्तृत शिलालेख मिले हैं। इनमें कल्याणी के चालुक्य राजा सोमेश्वर (द्वितीय) के समय में सन् ० १०७०-७१ में मूलसंघ मन्दिसंघ बलात्कार गण के प्राचार्य त्रिभुवनचन्द्र को दान दिये जाने का वर्णन है। यह दान गंग राजा बूतुग (द्वितीय) द्वारा अण्णिगेरे में निर्मित गंगपेमाडि जिनालय के लिये दिया गया था। चोल राजानों के आक्रमण से प्राप्त क्षति को दूर कर राजा सोमेश्वर ने पुनः यह दान दिया था। अतएव त्रिभुवन चन्द्र का समय ईसा की ११ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। एपिग्राफिया इंडिका भा० १५ पृ० ३३७ रामसेन प्रस्तत रामसेन मूलसंघ, सेनगण और पोगरिगच्छ के विद्वान् गुणभद्र अतीन्द्र के शिष्य थे। इन्हें प्रतिकण्ठ सिंगय्यने अपने शासक वर्मदेव को प्रार्थना पत्र देकर त्रिभुवन मल्ल देव से चालुक्य विक्रम वर्ष २ सन् १०३७ ई. में चालुक्य गंग पेनिडि जिनालय की, जिन पूजा अभिषेक और ऋषि पाहारदानादि के लिये गांव का दान दिया गया था। अत: इन रामसेन का समय ईसा की ११ दीं शताब्दी है। दयापाल मुनि मुनिबयापाल २ द्रविड संघस्थ नन्दि संघ अरुङ्गलान्वय के विद्वान थे। इनके गुरूका नाम मतिसागर था। संवत १४१६ वा भादवासुदी १३ गुरो दिने श्रीमद्योगिनी पुरे सकल राज्य शिरोमुकुट माणिक्य मरीचिकृत चरण कमल पादपीठस्प धीमत् पेरोजसाहे सकलसाम्राज्यधुराविभ्राणस्य समये वर्तमाने श्री कुन्दकुम्दाचार्यान्धये मूलसंघ सरस्वती गच्चे बलात्कार गरणे भट्टारक रनकोति तरुण तरुरिणत्यमुर्वीकुर्वाणं श्री प्रभाचन्द्राणां तस्य शिष्य ब्रह्मनाथ पठनाथं प्रमोत्कान्वये गोहित गोत्रे भरथल वास्तव्य परम श्रावक साघु साउ भार वीरो तमो पुत्र साधु ऊघस भार्या बालही तस्य पुत्र कुलघर भार्या पाणघरहे तस्य पुत्र भरहपाल भार्या लोघाही श्री भरहपाल लिसापितं कर्मक्षयार्थ । कनकदेव पंडित लिखतम् शुभं भवतु । २. हित षिणां यस्य नृणामुदात्तवाचा निबद्धाहित-रूपसिद्धिः। बंद्यो दयापाल मुनिः सवाचा सिद्धस्सतामूर्दनि य: प्रभाषः । -श्रवणबेलगोल ५४ बो शिला लेख
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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