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________________ ३२४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ यह कनकसेनके शिष्य और वादिराज के सुधर्मा गुरुभाई थे। इनकी रूप सिद्धि नामकी एक छोटी-सी रचना है।" चूंकि वादिराज ने पार्श्वनाथ चरित्र की रचना शक सं० २४७ (वि० सं० १०८०) में की है। अतः यही समय दयापाल मुनि का है । यह रचना प्रकाशित हो चुकी है। जयसेन प्रस्तुत जयसेन लाइ बागडसंघ के विद्वान थे। यह गुणी, धर्मात्मा शमी भावसेनसूरि के शिष्य थे। जो समस्त जनता के लिये श्रानन्द जनक थे। जैसा कि उनके सकल जनानन्द जनकः' वाक्य से प्रकट है। इसी लाड बागड संघ के विद्वान नरेन्द्रसेन ने सिद्धान्तसार की प्रशस्ति में भावसेन के शिष्य जयसेन को तपरूपी लक्ष्मी के द्वारा पापसमूह का नाशक, सत्तर्क विद्यार्णव के पारदशों और दयालुनों के विश्वास पात्र बतलाया है, जैसा कि सिद्धान्तसार प्रशस्ति के निम्न पद्य से स्पष्ट है : रव्यातस्ततः श्रीजयसेननामा जातस्तपः यः सतर्क विद्यार्णवपारवृश्वा विश्वासगेहं श्रीक्षतदुःकृतौघः । करुणरस्पवानां || इन्हों ने धर्मरत्नाकर नाम के की रचना की है जो एक संग्रह ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय गृहस्थ धर्म है, जो प्रत्येक गृहस्य द्वारा श्राचरण करने योग्य हैं । ग्रन्थ में गृहस्थों के प्रणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत रूप द्वादशव्रतों के अनुष्ठानका विस्तृत विवेचन दिया हुआ है । ग्रन्थ में बीस प्रकरण या अध्याय हैं। जिनमें विवेचित वस्तु को देखने और मनन करने से उसे धर्म का सद् रत्ना कर अथवा धर्मरत्ना कर कहने में कोई अत्युक्ति मालूम नहीं होती । वह उसका सार्थक नाम जान पड़ता है । ग्रन्थ में कवि ने अमृतचन्द्राचार्य के पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, गुणभद्राचार्य के श्रात्मानुशासन और यशस्तिलक चम्पू आदि ग्रन्थों के पद्यों को संकलित किया है। इससे यह एक संग्रह ग्रन्थ मालूम होता है । जिसे ग्रन्थ कारने अपने और दूसरे ग्रन्थों के पद्य वाक्य रूप कुसुमों का संग्रह करके माला की तरह रचा है । ग्रन्थकर्ता ने स्वयं इस की सूचना ग्रन्थ के अन्तिम पद्य ६० में " इत्येतैरुपनीत विचित्र रचनं: स्वैरन्यवीयं रपि । भूतोद्य गुणस्तथापि रचिता मालेय सेयं कृतिः" । वाक्य द्वारा की है। जयसेन ने अपनी गुरुपरम्परा का निम्न रूप में उल्लेख किया है। धर्मसेन, शान्तिषेण, गोपसेन, भावसेन और जयसेन | ये सब मुनि उक्त लाडवागड संघ के थे। जयसेन ने धर्मरत्नाकर की रचना का उल्लेख निम्न प्रकार किया है : वाणेन्द्रिय व्योमसोम - मिते संवत्सरे शुभे । ग्रन्थोऽयं सिद्धतां यात सकली करहाटके | इससे प्रस्तुत जयसेन का समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी का मध्य काल है । यह मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान इन्द्रनन्दि के शिष्य मैसूर) के ११ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के शिलालेख में इनके द्वारा एक जैनमन्दिर बनवाने कुछ भूमि दान देने का उल्लेख है इनका समय विक्रम की ११वीं सदी का उत्तरार्ध है । ****** कनकसेन भट्टारक व रशिष्यर शब्दानुशासनको प्रक्रियेनेन्दु रूपसिद्धियं माडिद दयापालदेवखं पुष्पवेरण सिद्धान्तदेवम् शब्दानुशासनस्योच्चैररूप सिद्धिम्महात्मना । कृता येन स बामति दयापालो मुनीश्वरः । - जैनले खसं० भा० २५० २६५ -- जैन लेखसं० भा० २ ० ३०८ बाहुबलि श्रावार्य थे । हन गुन्द ( बीजापुर और उसमंदिर के लिये
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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