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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
गया था। पश्चात् विशेष तत्व के परिज्ञानार्थ उन्हीं नेमिनद्र के द्वारा द्रव्य संग्रह की रचना हुई है। उसकी अधिकारों के विभाजन पूर्वक यह व्याख्या या वृत्ति प्रारम्भ की जाती है। साथ में यह भी सूचित किया है कि उस समय आश्रम नामका यह नगर श्रीपाल महामण्डलेश्वर (प्रान्तीय शासक) के अधिकार में था। और सोम नाम का राजश्रेष्ठो भाण्डागार (कोष) आदि अनेक नियोगों का अधिकारी होने के साथ-साथ तत्त्वज्ञान रूप सुधारस का पिपासु था। वृत्तिकार ने उसे 'भव्यवरपुण्डरीक' विशेषण से उल्लेखित किया है, जिससे वह उस समय के भव्य पुरुषों में श्रेष्ठ था।
ब्रह्मदेव आश्रम नाम के नगर में निवास करते थे। जिसे वर्तमान में केशोराय पाटन के नाम से पुकारते हैं। यह स्थान मालब देश में चम्बल नदी के किनारे कोटा से मील दूर और बंदी से तीन मोल दुर अवस्थित है। जो अस्सारम्म पट्टण 'पाश्रम पत्तन, पत्तन, पुट भेदन, केशोराय पाटन और पाटन नाम से प्रसिद्ध है। यह स्थान परमारवंशी राजाओं के राज्यकाल में रहा है। चर्मणबती (चम्बल) नदी कोटा और बंदी को सीमा का विभाजन करती है। इस चम्बल नदी के किनारे बने हुए मुनिसुव्रतनाथ के चैत्यालय में जो, उस समय एक तीर्थ स्थान के रूप में प्रसिद्ध था। और वहां अनेक देशों के यात्रीगण धर्मलाभार्थ पहँचते थे । सोमराजश्रेष्ठी भी वहां पाकर तत्वचर्चा का रस लेता था। वह स्थान उस समय पटन-पाठन और तत्वचर्चा का केन्द्र बना हुअा था। उस चैत्यालय में बीसवें तीर्थकर मुनि सुबतनाथ की श्यामवर्ण को मानन के आदमकद से कुछ ऊँनी सातिशय मूर्ति विराजमान है । यह मन्दिर ग्राज भी उसी अवस्था में मौजूद है। इसमें श्यामवर्ण की दो मतियाँ और भी विराजमान हैं। सरकारी रिपोर्ट में इसे 'भईदेवरा के नाम से उल्लेखित किया गया है।
विक्रम की १३ वीं शताब्दी के विद्वान मनि मदनकीति ने अपनी शासन चस्त्रिशतिका के २८वें पद्म में आश्रम नगर की मुनिसुव्रत-सम्बन्धि ऐतिहासिक घटना का उल्लेख किया है
पूर्व याऽऽश्रममाजगाम सरिता नाथास्तुदिव्या शिला । तस्यां देवागणान द्विजस्य दधतस्तस्यो जिनेशः स्वयं । कोपात् विप्रजनावरोधमकरै वैवः प्रपूज्याम्बरे ।
वन यो मुनिसुवतः स जयतात् विग्नासंसां शासनम् ॥२८॥ इसमें बतलाया गया है कि जो दिव्य शिला सरिता से पहले प्राथम को प्राप्त हई । उस पर देवगणों को धारण करने वाले विनों के द्वारा क्रोध वश अवरोध होने पर भी मुनिसुव्रत जिन स्वयं उस पर स्थित हुए -वहां मे फिर नहीं हटे। और देवों द्वारा आकाश में पूजित हए वे मूनिसूयत जिन ! दिगम्बरों के शासन की जय करें।
आश्रम नगर की यह ऐतिहासिक घटना उसके तीर्थ भूमि होने का स्पष्ट प्रमाण है। इससे निर्वाण काण्ड की गाथा में उसका उल्लेख हुआ है। यह घटना १३वों शताब्दी से बहुत पूर्व घटित हुई है । और ब्रह्मदेव जैसे टीकाकार, सोमराज श्रेष्ठी और मुनि नेमिचन्द्र जैसे सैद्धान्तिक बिद्वान वहाँ तत्त्वच गोष्ठी में शामिल रहे हैं। द्रव्य संग्रह को वृत्ति में ब्रह्मदेव ने 'अत्राह-सोमाभिधान राजश्रेष्ठी' जैसे वाक्यों द्वारा टीकागत प्रश्नोत्तरों का सम्बन्ध व्यक्त किया है। क्योंकि नामोल्लेखपूर्वक प्रश्नोत्तर बिना समक्षता के नहीं हो सकते । मुन सुनाकर ऐसा प्रश्नोत्तर लिखने का रिवाज मेरे अवलोकन में नहीं आया। ब्रह्मदेव का उक्त घटना निर्देश और लेखन शैली घटना की साक्षी को प्रकट करती है। और उक्त तीनों व्यक्तियों को सानिध्यता का स्पष्ट उद्घोष करती है ।
वत्तिकार ब्रह्मदेव ने उसी पाश्रम पत्तन के मुनिसुव्रत चैत्यालय में अध्यात्मरस गभित द्रव्य संग्रह को महत्वपूर्ण व्याख्या की है । ब्रह्मदेव अध्यात्मरस के ज्ञाता थे। और प्राकृत संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषा के विद्वान थे। सोम नाम के राजश्रेष्ठी, जिसके लिये मूल ग्रन्थ और वृत्ति लिखी गई, अध्यात्मरस का रसिक था। क्योंकि वह शुद्धात्मद्रव्य की संवित्ति से उत्पन्न होने वाले सुखामृत के स्वाद से विपरीत नारकादि दु:खों से भयभीत, तथा परमात्मा की भावना से उत्पन्न होने वाले सुधारस का पिपासु था, और भेदाभेदरूप रत्नत्रय (व्यवहार तथा
१. अस्सारम्भे पट्टणि मुरिपक्वजिणं च वदामि । निर्वाण काण्ड, मुरिणसुच्च उजिणू तह आसरम्मि । निर्वाण भक्ति