SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ २० देखा जिसमें गधे जुते हुए थे और उस पर एक आदमी बैठा हुआ था । गधे उसे हरे धान के खेत की ओर ले जा रहे थे। रास्ते में मुनि को जाते हुए देख कर रथ में बैठे हुए मनुष्य ने उन्हें पकड़ लिया, और उन्हें वह कष्ट पहुँचाने लगा | मुनि के ज्ञान का कुछ क्षयोपशम हो जाने से उन्होंने एक खण्ड गाथा पढ़ी - कहसि पुण णिक्खेवसिरे महा जब पेच्छसि खादिमिति । रे गधो, कष्ट उठाओगे तो तुम जो भी चोहो खा सकोगे । एक दिन कुछ बालक खेल रहे थे, देवयोग से कोषिका भी वहीं पहुँच गई। उसे देखकर वे बालक डरे । उस समय कोणिका को देखकर यम मुनि ने एक श्रीर खण्ड गाथा बनाकर पढ़ी 'त्थ किलोवह तुम्हे पत्थणि वृद्धि या छिड़े अच्छाई कोणि इनि । दूसरी ओर क्या देखते हो ? तुम्हारी पत्थर सरीखी कठोर वृद्धि को छेदने वाली कोणिका तो है । एक अन्य दिन यम मुनि ने एक मेंढक को एक कमल पत्र की आड़ में छुपे हुए सर्प की ओर श्राते हुए देखा। देखकर वे से ढक से बोले- 'अम्हादो पत्थि भयं दोहादो दीसदे भय तुम्हांस मेरे आत्मा को किसी से भय नहीं है, किन्तु भय है तुम्हें । यम मुनि ने जो कुछ थोड़ा-सा ज्ञान सम्पादन कर पाया, वह उक्त तीन खण्ड गाथात्मक ही था। वे उन्हीं का स्वाध्याय करते, इसके अतिरिक्त उन्हें कुछ नहीं जाता था । किन्तु उनका अन्तर्मानस पवित्र था। वे यथाजात मुद्रा के धारक थे, तपश्चरण करते और अनेक तीर्थो की यात्रा करते हुए ये धर्मपुर थाए। वे शहर के बाहर एक बगीचे में कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हो ध्यान करने लगे । उनके थाने का समाचार उनके पुत्र गर्दभ और राजमंत्री दीर्घ को ज्ञात हुआ । उन्होंने समझा कि ये हमसे गुनः राज्य लेने के लिये आये हैं । श्रतएव वे दोनों मुनि को मारने का विचार कर आधी रात के समय वन में प्राए और तलवार खींच कर उनके पीछे खड़े हो गए । मुनिवर ने निम्न गाथा पढ़ी - धिक् राज्यं धिङ् मूर्खत्व कातरत्वं च धिक्तराम् । निस्पृहाच्च मुनयन शंका राज्येऽभवत्तयोः 11 --ऐसे राज्य को ऐसी मूर्खता और ऐसे डरपोकपने को धिक्कार है, जिससे एक निस्पृह और संसारत्यागी मुनि के द्वारा राज्य के छीने जाने का उन्हें भय हुया । यद्यपि गर्दन और दीर्घ दोनों मुनि की हत्या करने को प्राए थे, परन्तु उनकी उन्हें मारने की हिम्मत न पड़ी। उसी समय मुनि ने अपनी स्वाध्याय को पहली गाथा पढ़ी। उसे सुनकर गर्दभ ने मंत्रो से कहा- जान पड़ता है मुनि ने हम दोनों को देख दिया है। पश्चात् मुति ने दूसरी खण्ड गाथा पढ़ी, तब उसने कहा, नहीं जी मुनिराज राज्य लेने नहीं आए हैं। मेरा वैसा समझना भ्रम था श्रज्ञान था। मेरी बहिन कोशिका के प्रेम वश वे कुछ कहने को ये जान पड़ते हैं। अनतर मुनिराज ने तीसरी गाथा भी पढ़ी। उसका अर्थ गर्दभ ने यह समझा कि मंत्री दीर्घ बड़ा दुष्ट है, मुझे मारना चाहता है। अतएव भ्रमवश ही पिता जी मुझे सावधान करने आये हैं । थोड़ी देर में उनका राव सन्देह दूर हो गया। उन्होंने अपने हृदय की सब दुष्टता छोड़कर बड़ी भक्ति के साथ उन मुनिराज को प्रणाम दिया और धर्म का उपदेश सुना । उपदेश सुनकर वे दोनों बहुत प्रसन्न हुए, और श्रावक के व्रतों को ग्रहण कर अपने स्थान को लौट गए । यमवर मुनि निर्मल चारित्र का पालन करते हुए अपने परिणामों को वैराग्य से सराबोर करने लगे । उनकी निस्पृह वृत्ति, पवित्र संयम का श्राचरण, और तपश्चरण की निष्ठता, एकाग्रता दिन-पर-दिन बढ़ रही थी। उन्हें तपश्चरण के प्रभाव से सप्त ऋद्धियाँ प्राप्त हुई। वे भगवान महावीर द्वारा अदिष्ट सम्यक्ज्ञान की आराधना में तत्पर हुए। लब्धि संयुक्त वे मुनि अन्य पाँच सौ मुनियों के साथ कुमारगिरि के शिखर से देवलोक को प्राप्त हुए । जैसा कि कथा कोश के निम्नपद्यों से स्पष्ट है १. यमयोगी परिप्राप्य गुरुसामीप्यमादरात्। घोर तपकारे विविधद्धि समन्वितः ।। पादानुसारिंगी बुद्धिः कोष्ठबुद्धिस्तथैव च भिन्न श्रोत्रिकाद्या हि बुद्धयः परिकीर्तिताः ॥ ५६ ॥ उग्रं तपस्तथा दीप्तं तपस्तप्तं महातपः । धोरादीनि विजानन्तु तपांसीमानि कोविदः ||६०|| - हरिषेण कथाकोष पृ० १३६ ---
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy