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अन्तिम केवली जम्बूस्वामी
एताभिलब्धिभियुक्तः श्रामण्यं परिपाल्य च । धर्मादिनगरासन्ने कुमार गिरिमस्तके ।। ६७ । शतैः पञ्चभिरायुक्ता मुनीनां धर्मशालिनाम। पाराधनां समाराध्य यमः साधुदिवं ययौ ।। ६।
अन्तिम केवली जम्बूस्वामी
मगध देश के राजगृह नगर में अहद्दास नाम का सेठ रहता था। उसकी पत्नी का नाम जिनमती या जिनदासी था, जो रूप-लावण्य-संयुक्त और पतियता थी। दोनों हो जैनधर्म के संपालक मोर धर्मनिष्ठ थावक थे। सेठ ग्रहंदास के पिता का नाम धनदत्त और माता का नाम गोत्रवती था । इनकं दो पुत्र थे अहंदास और जिनदास । इनमें ग्रहदास धर्मात्मा था और जिनदास कुसंगति के कारण बूतादि व्यसनों का शिकार हो गया था। वह एक दिन जुए में छत्तीस सहस्र मुद्राए हार गया। घर से मुद्रा लाकर दने का वचन देने पर भी छल नाम के एक जुमारी ने जिनदास के पेट में कटार मार दी। उसकी सूचना मिलने पर अहंदास उसे अपने घर ले आया, और उचित उपचार करने पर भी वह उसे बचा न सका। उसने ग्रहहास से कहा कि मने जीवन में धर्म से विपरीत बुरे कर्म किये हैं, उनका मुझे पश्चात्ताप है । परलोक सुधारने के लिये कुछ धर्म का स्वरूप बतलाइये। तव अहंदास ने उसे धार्मिक उपदेश दिया और पचनमस्कार मंत्र सुनाया, जिससे वह यक्ष योनि में उत्पन्न हुमा । जव उसने यह सुना कि अहंदास सेठ के गृह में अन्तिम केवली जम्बूस्वामी का जन्म होगा, तो वह अपने वंश की प्रशंसा सुनकर हर्ष से नाच उठा।
विद्यन्मालो देव का जीव ब्रह्म स्वर्ग से चयकर जब जिनमती के गर्भ में पाया तब जिनमतो ने पांच शुभ स्वप्न देखे--हाथो, सरोवर, चावलों का खेत, घूम रहित अग्नि, और जामुन के फल । नौ महीने बाद ६०७ ई. पूर्व में जम्बुम्वामी का जन्म हुआ और उसका नाम जम्बूकुमार रक्खा गया। जम्बूकुमार दूज के चन्द्र के समान प्रतिदिन बढ़ता गया । वह स्वभावतः सौम्य, सुन्दर, मिष्टभापी, भद्र, दयालु और वैराग्यप्रिय था। वाल अवस्था में उसने समस्त विद्यानों को शिक्षा पाई थी। उसके गुणों को सुरभि चारों तरफ फैलने लगी। वह कामदेव के समान मन्दर रूप का धारक था। उसे देखकर नगर की नारियाँ अपनी सुध-बुध खो बैठती थीं मोर काम बाण से पीड़ित हो जाती थीं। किन्तु कुमार पर उसका कोई प्रभाव अकित नहीं होता था, क्योंकि उसका इन्द्रिय विषयों में कोई राग नहीं था और युवावस्था में भी वह निविकार था। उसके प्रात्म-प्रदेशों में वैराग्य रस का उभार जो हो रहा था। वह बज्रवषभनाराच संहनन का धारी और चरम शरीरी था और जैन धर्म का संपालक था।
जीवन-घटनाएं
एक बार राजा श्रेणिक का बड़ा हाथो कोलाहल से भयभीत होकर सांकल तोड़कर क्रोधयुक्त हो वन में घमने लगा। उसके कपालों से मद कर रहा था जिस पर भ्रमर गुंजार कर रहे थे। वह नील पर्वत के समान काला था और अपने दांतों से पृथ्वी को कुरेदता हुमा सूड से पानी फेंकता था। वह जिधर जाता वृक्षों को जड़मूल से उखाड़ देता था। उस वन में ग्राम, जामुन, नारंगी, केला, ताल-तमाल, प्रशोक, कदंब, सल्लकी साल, नीबू, खजर, नारियल, और अनार प्रादि के सुन्दर पेड़ लगे हुए थे। कुछ पौधे खुशबूदार फूलों के समूह से लदे हुए थे, जिनकी महक से वह वन सुरभित हो रहा था। उसमें अनेक प्रकार के फल-फूल और मेवों वाले बहुमूल्य पेड़ थे। उस वन की शोभा देखते ही बनती थी । वह मोरणियों के शब्दों से गुंजायमान था और कोयलों की मधुर ध्वनि से मुखरित हो