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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ २०० की गई है । ग्रन्थ आधुनिक सम्पादन की वाट जोह रहा है। पत्र- परीक्षा- इसमें दर्शनान्तरीय पत्र लक्षणों की समालोचना पूर्वक जैन दृष्टि से पत्र का सुन्दर लक्षण किया है। प्रतिज्ञा और हेतु को अनुमानाङ्ग प्रतिपादित किया है । सत्य-शासन परीक्षा- इसमें पुरुषाद्वैत आदि १२ शासनों की परीक्षा की प्रतिक्षा की गई है। किन्तु ६ शासनों की परीक्षा पूरी और प्रभाकर शासन की अधूरी परीक्षा उपलब्ध होती हैं । यह ग्रंथ डा० गोकुलचन्द जो के सम्पादकत्व में भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित हो चुका है । श्री पुरपावनाय स्तोत्र - यह ३० पद्यात्मक स्तोत्र ग्रन्थ है। जिसमें श्रीपुर के पार्श्वनाथ का स्तवन किया गया है । इसमें विद्यानन्द ने स्रग्धरा, शार्दूल विक्रीडित, शिखरिणी और भन्दा कान्ता छन्दों का प्रयोग किया है । इस स्तोत्र में समन्तभद्राचार्य के देवागमादिक स्तोत्र जैसी तार्किक शैली को अपनाया गया है। और कपिलादिक मैं अनाप्तता बतलाकर पार्श्वनाथ में प्राप्त पता सिद्ध किया गया है, और उनके बीतरागत्व, सर्वज्ञत्व और मोक्षमार्गप्रणेतृत्व इन असाधारण गुणों की स्तुति की गई है। रूपकालंकार की योजना करते हुए आराध्य देव की प्रशंसा की गई है। यथा शरण्यं नाथाऽर्हन् भय-भव भवारण्य-विगति च्युता नामस्माकं निरवर-वर कारुण्य-निलयः । यतो गप्पात्पुण्याचिरतरमपेक्ष्यं तव पदं परिप्राप्ता भक्त्या वयमचल- लक्ष्मीगृह मिदम् ॥२९ हे नाथ! हे अर्हन् ! आप संसाररूपी वन में भटकने वाले हम संसारी प्राणियों के लिये शरण हों, थाप हमें अपना आश्रय प्रदान कर संसार परिभ्रमण से मुक्त करें, क्योंकि आप पूर्णतया करुणानिधान हैं। हम चिरकाल से आप के पदों की अपेक्षा कर रहे हैं। आज बड़े पुण्योदय से मोक्ष लक्ष्मी के स्थान भूत भाप के चरणों की भक्ति प्राप्त हुई है। स्तोत्र में भाषा का प्रवाह मौर उदात्त शैली मन को अपनी ओर आकृष्ट करती है । यह स्तोत्र पं० दरबारी लाल जी की हिन्दी टीका के साथ वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित हो चुका है ? प्राचार्य विद्यानन्द का समय प्राचार्य विद्यानन्द ने मष्टसहस्री के प्रशस्ति पद्म में कुमारसेन की उक्तियों से उसे प्रवर्धमान बतलाया है । इससे विद्यानन्द कुमारसेन के उत्तरवर्ती हैं। कुमार सेन का समय ७८३ से पूर्ववर्ती है। क्योंकि कुमारसेन का स्मरण पुन्नाटसंघी जिनसेन (शक सं० ७०५ - सन् ७६३) ने हरिवंश पुराण में किया है। इससे कुमारसेन वि० सं० ८४० से पूर्ववर्ती हैं। उस समय उनका यश वर्धमान होगा। अतः विद्यानन्द का समय सन् ७७५ से ६४० प्रमाणित होता है । प्राचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक की ग्रन्तिम प्रशस्ति में निम्न पद्य दिया है :-- 'जीयात्सज्जनताऽऽभयः शिव-सुधा धारावधान प्रभुः, ध्वस्त व्वान्त-ततिः समुन्नतगतिस्तीव्र प्रतापान्वितः । प्रोज्योति रिवावगाहन कृतानन्त स्थि तिर्मानतः, सन्मार्गस्त्रितयात्मकोऽखिल मलः प्रज्वालन प्रक्षमः ॥ ३० इस पद्य में विद्यानन्द ने जहां मोक्षमार्ग का जयकार किया है। यहां उन्होंने अपने समय के गंगनरेश शिवमार द्वितीय का भी यशोगान किया है। शिवमार द्वितीय पश्चिमी गंगवंशी श्रीपुरुष नरेश का उत्तराधिकारी और उसका पुत्र था, जो ई० सन् ८१० के लगभग राज्य का प्राधिकारी हुआ था । इसने श्रवण बेलगोल की छोटी १. प्रस्तुत श्रीपुर धारवाड जिले का शिरूर ग्राम ही श्रीपुर हो। क्योंकि शक सं० ६६८ ( ई० सन् ७७६) में पश्चिमी गंगबंशी राजा श्री पुरुष के द्वारा श्रीपुर के जैन मन्दिर के लिये दिये जाने वाले दान का उल्लेख करने वाला एक ताम्रपत्र मिला है। -- ( जैन सि० भा० भा० ४ कि०३ १५८ ) वर्जेस और हण्टर आदि अनेक पाश्चात्य लेखकों ने बेसिंग जिले के सिरपुर को प्रसिद्ध तीर्थं बतलाया है। और पार्श्वनाथ के प्राचीन मन्दिर होने की सूचना की है। संभव है इसी नगर के पार्श्वनाथ की स्तुति विद्यानन्द ने की हो और महाराष्ट्र देश का श्रीपुर नगर जहाँ के अन्तरीक्ष पारख नाथ का मन्दिर भिन्न ही हो। जिसके कुएं के जल से एलग राय (श्रीपाल ) का कुष्ट रोग दूर हुआ था। इस सम्बन्ध में अन्वेषणा करने की आवश्यकता है । २. देखो हरिवंश पुराण १-३८
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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